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(४४८)
अष्टाङ्गहृदयेप्रवर्तयेत्॥पीनसार्दिततृट्कासश्वासादींश्चामयान्बहून॥२०॥ पांच प्रकारके वायुमें प्राण नामवाला वायु रूखापन, व्यायाम, लंघनकरके प्रत्याहार, अभिघात, मार्गगमन, वेगका बढाना और धारण करके ॥ १९ ॥ कुपित होके नेत्र आदि इंद्रियोंके उपघातको और पीनस, अर्दितवात, तृषा, खांसी, श्वास, आदि बहुतसे रोगोंको प्रवृत्त करता है ॥ २० ॥
उदानःक्षवथूगारच्छर्दिनिद्रावधारणैः।गुरुभारातिरुदितहास्या यैर्विकृतोगदान् ॥ २१॥ कंठरोधमनोभ्रंशच्छद्यरोचकपीनसा न् । कुर्याच्च गलगंडादींस्तांस्ताञ्जलसंश्रयान् ॥२२॥ छींक, डकार, छार्द, नींद, इन्होंको धारणकरके और भारी, बोझ, अत्यन्त रोदन, अत्यन्त हँसना. आदि करके विकृत हुवा उदानवायु ॥ २१ ॥ कंठरोध, मनोभ्रंश, छार्दै, अरोचक, पीनस, गलगंड, गलेकी हँसलीके ऊपर संश्रितहुये अन्य रोग आदिको करता है ॥ २२ ॥ .
व्यानोऽतिगमनध्यानक्रीडाविषमचेष्टितैः ॥ विरोधिरूक्षभीह पविषादाद्यैश्च दूषितः॥२३॥ पुंस्त्वोत्साहबलभ्रंशशोफचित्तो त्प्लवज्वरान् ॥ सर्वांगरोगनिस्तोदरोमहर्षाङ्गसुप्तताः ॥२४॥ कुष्ठं विसर्पमन्यांश्च कुर्यात्सर्वाङ्गगान्गदान् ॥ अतिगमन, चिंता, क्रीडा, विषम चेष्टा, विरोधि, सुख, भय, हर्ष, विष, आदि करके दूषित हुआ ॥ २३ ॥ व्यानवायु, नपुंसकपना, उत्साहनाश, बलक्षय, शोजा, चित्तका विगडना, ज्वर, सर्वांगरोग, चभका, रोमहर्ष, अंगका सुप्तपना ॥ २४ ॥ कुष्ठ, विसर्प सब अंगमें प्राप्तहोनेवाले अन्यरोगको करता है ।।
समानो विषमाजीर्णशीतसङ्कीर्णभोजनैः ॥२५॥ करोत्यकाल शयनजागरायैश्च दूषितः ॥ शूलगुल्मग्रहण्यादीन्पक्कामाशय जान्गदान् ॥ २६॥
और विषम अजीर्ण, शीतल, संकीर्ण, भोजनों करके ॥ २५ ॥ और अकालशयन अकालमें जागना आदिकरके दूषितहुआ समान वायु शूल, गुल्म ग्रहणी, पक्काशय तथा आमाशयसे उपजे रोग आदिको करताहै ॥ २६॥
अपानो रूक्षगुर्वन्नवेगघातातिवाहनैः॥ यानयानासनस्थानचं क्रमैश्चातिसेवितैः॥२७॥कुपितः कुरुते रोगान्कृच्छ्रान्पक्वाश याश्रयान् ॥ मूत्रशुक्रप्रदोषार्थीगुदभ्रंशादिकान्बहून् ॥ २८॥
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