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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४४५). पाणीके प्रति जो अंगुलियोंकी कंडरा है वह वायुकरके पीडित हुई सक्थियोंके निश्चलपनेकी तरह उत्पन्न करती है तिसको वैद्य गृध्रसी रोग कहते हैं ॥ १४ ॥ पहिले कहा विश्वाची वातरोग
और अब कहा गृध्रसी वातरोग ये दोनों तीव्र पीडासे अन्वित होवें तब खल्लीवात रोगके नामसे विख्यात किये जाते हैं ।
हृष्येते चरणौ यस्य भवेतां च प्रसुप्तवत् ॥ ५५ ॥
पादहर्षः स विज्ञेयः कफमारुतकोपजः ॥ __ और जिस मनुष्यके प्रसुप्त अर्थात् सोते हुयेकी तरह दोनों पैर हर्षित होवै ॥ ५५ ॥ वह पादहर्ष रोग जानना योग्य हैं यह कफ और वातके कोपसे उपजता है ॥
पादयोः कुरुते दाहं पित्तासृक्सहितोऽनिलः ॥ ५६ ॥
विशेषतश्चंक्रमिते पाददाहं तमादिशेत् ॥ ५७ ॥ पित्त और रक्तसे समन्वित हुवा वायु दोनों पैरों में दाहको करता है ॥५६॥ और विशेषकरके चलने फिरनेमें दाहको करता है तिसको वैद्यजन पाददाह कहते हैं ॥ १७ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
निदानस्थाने पंचदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥ षोडशोऽध्यायः।
-Corअथातो वातशोणितनिदानं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर वातशोणित अर्थात् वातरक्तनिदाननामक अध्यायका ब्याख्यान करेंगे। विदाह्यन्नं विरुद्धं च तत्तच्चासृक्प्रदूषणम् ॥ भजतां विधिहीनं च स्पप्नजागरमैथुनम् ॥१॥ प्रायेण सुकुमाराणामचंक्रमणशी लिनाम् ॥अभिघातादशुद्धेश्च नृणामसृजि दूषिते॥२॥वातलैः शीतलैर्वायुर्वृद्धः क्रुद्धो विमार्गगः॥ तादृशेनासृजा रुद्धःप्राक्त देवप्रदूषयेत् ॥३॥आढ्यरोगं खुडं वातबलासं वातशोणि तम् ॥ तदाहुर्नामभिस्तच पूर्व पादौ प्रधावति ॥४॥ विशेषा द्यानयानायैः प्रलम्बौविदाही अन्न और विरुद्ध अन्न रक्तको दूषित करनेवाले पदार्थके सेवनेवाले मनुष्योंके और विधिहीन तथा शयन जागना मैथुनके सेवनेवाले मनुष्यके ॥ १ ॥ और प्रायतासे सुकुमार मनुष्योंके और नहींहलने टहलनेवाले मनुष्योंके अनेक प्रकारकी चोटके लगनेसे और मल आदिकी नहीं
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