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(४४४)
अष्टाङ्गहृदयेजाताहै और दोनों ऊरूके संबंधी कंडराको वायु क्षेपित करता है, तब मनुष्य पांगला होजाता है ॥ ४५ ॥ जो गमनके आरंभमें कांपता है और लँगडेकी तरह चलताहै वह संधिके प्रबंधसे छुटाहुआसा कडायखंञ्ज रोग कहाता हैं । ॥ ४६॥
शीतोष्णद्रवसंशुष्कगुरुस्निग्धैनिषेवितैः ॥ जीर्णाजीर्णे तथाऽऽ याससंक्षोभस्वप्नजागरैः ॥४७॥ सश्लेष्मभेदः पवनमाम मत्यर्थसंचितम् ॥ अभिभूयेतरं दोषमूरू चेत्प्रतिपद्यते ॥४८॥ सक्थ्यस्थीनि प्रपूर्यान्तः श्लेष्मणा स्तिमितेन तत् ॥ तदा स्कम्नातितेनोरू स्तब्धौ शीतावचेतनौ ॥ ४९ ॥ परकीयाविव गुरू स्यातामतिभृशव्यथौ ॥ ध्यानांगमर्दस्तैमित्यतन्द्राच्छर्य रुचिज्वरैः॥ ५०॥ संयुतौ पादसदनकृच्छोद्धरणसुप्तिभिः॥ तमूरुस्तम्भमित्याहुराढयवातमथापरे ॥५१॥ शीतल, गरम, द्रव, अत्यंत सूखा, भारी, चिकना, पदार्थ सेवनेकरके और जीर्णमें तथा अजीर्णमें इन पूर्वोक्तोंको सेवने करके और परिश्रम, संक्षोभ, शयन, तथा जागनेसे ॥४७॥ कफ, मेद, वायु, करके संयुक्त और अत्यंत संचित किया आम अन्य दोषको तिरस्कृत करके जो ऊरूओंमें प्राप्त हो जाता है ॥४८॥ तब वह गीले कफ करके सक्थिस्थानकी हड्डियोंको भीतरसे पूरित कर पीछे दोनों ऊरूस्थानोंको वही आम रोकता है, तिसकरके स्तब्धरूप शीतल और चेतनताते रहित ॥ ४९॥ मानो दूसरेके ऊरू हैं ऐसे भारी और ध्यान अर्थात् चिंता, अंगमर्द स्तिमितपना, तंद्रा, छार्दै, अरुचि, ज्वर, करके बहुत पीडावाले ॥ ५० ॥ पैरोंकी शिथिलता, कष्ट करके पैरोंका उठाना और पैरोंकी सुप्ति करके संयुक्त ऊरू हो जाते हैं, तिसको ऊरुस्तंभ कहते हैं और अन्य वैद्य आढ्य वात कहते हैं ॥ ५१ ॥
वातशोणितजाशोफो जानुमध्ये महारुजः॥
ज्ञेयः क्रोष्टुकशीर्षश्च स्थूलः क्रोष्टुकशीर्षवत् ॥ ५२ ॥ __ गोडोंके मध्यमें अत्यंत शूलवाला और वात रक्तसे उपजा और गीदडके शिरकी समान मोटा क्रोष्टुकशीर्षरोग जानना योग्य है ॥ ५२ ॥ __ रुक्पादे विषमन्यस्ते श्रमाद्वा जायते यदा॥
वातेन गुल्फमाश्रित्य तमाहुतकण्टकम् ॥ ५३ ॥ विषम तरहसे स्थित हुये पैरमें अथवा परिश्रम करके जब टकनाको आश्रित हो वातकरके शूल उपजता है, तिसको वातकंटक कहते हैं ।। ५३ ॥
पाणि प्रत्यङ्गुलीनां या कण्डरा मारुतार्दिता ॥ सक्थ्युत्क्षेपं निग्रहाति गृध्रसी तां प्रचक्षते ॥ ५४ ॥ विश्वाची गृध्रसी चोक्ता खल्ली तीवजान्विता॥
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