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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४४३) गृहीत्वाई तनोर्वायुः शिराः स्नायूविंशोष्यच ॥३८॥ पक्षमन्य तरं हन्ति सन्धिबन्धान्विमोक्षयन् ॥ कृत्स्नोऽर्द्धकायस्तस्य स्यादकर्मण्यो विचेतनः॥३९॥एकाङ्गरोगं तं केचिदन्ये पक्षवधं विदुः ॥ सर्वाङ्गरोगं तद्वच्च सर्वकायाश्रितेनिले ॥४०॥
वायु शरीरके अर्धभागको ग्रहण कर शिराओंको तथा नसोंको शोषणकर ॥ ३८ ॥ संधिके बंधोंको खोलता हुआ किसी तर्फके पक्ष अर्थात् भागको नाशता है तब तिस रोगीका संपूर्ण आधा शरीर कर्म करनेमें असमर्थ चेतनसे रहित हो जाता है ॥ ३९ ॥ तिसको कितनेक वैद्य एकांग रोग कहते हैं और अन्य वैद्य पक्षवध कहतेहैं और सकल शरीरमें आश्रित हुए वायुमें पूर्वोक्त. पक्षवधके सब लक्षण मिलनेमें सर्वांग रोग कहाता है ॥ ४० ॥
शुद्धवातहतः पक्षाकृच्छ्रसाध्यतमो मतः॥
कृच्छस्त्वन्येन संसृष्टोविवयः क्षयहेतुकः॥४१॥ __ शुद्ध वात करके हतहुवा एकांगरोग अत्यंत कष्टसाध्य कहाता है और अन्य करके संयुक्त हुवा एकांग रोग कष्टसाध्य कहाता है और क्षयके हेतुवाला एकांगरोग असाध्य होता है । ४१॥
आमबद्धायनः कुर्यात्संस्तभ्यांगं कफान्वितः ॥
असाध्यं हतसर्वेहं दण्डवदण्डकं मरुत् ॥ ४२ ॥ आमकरके बद्ध हुये द्वारोंवाला और कफसे अन्वित वायु अंगको स्तभित करके दंडकी तरह हत हो चेष्टायुक्त दंडके रोगको करता है, यह असाध्य है ॥ ४२ ॥
अंसमूलस्थितो वायुः शिराः संकोच्य तत्रगाः ॥
बाहुप्रस्पन्दितहरं जनयत्यवबाहुकम् ॥ ४३ ॥ कंधोंके मूलमें स्थित हुवा वायु तहाँ स्थित होनेवाली शिराओंको संकोचितकर बाहुके प्रस्पंदितको हरनेवाले अवबाहुक रोगको करता है ॥ ४३ ।।
तलं प्रत्यंगुलीनां या कण्डरा बाहुपृष्ठतः॥ . बाहुचेष्टापहरणी विश्वाची नाम सा स्मृता॥४४॥ हाथके तलवेप्रति जो बाहुके पृष्ठभागमें नसोंका समूह है, वह वायुकरके पीडित होवे तब बाहुकी चेष्टाको हरनेवाली विश्वाची नाम व्याधि होती है ॥ ४४ ॥
वायुः कटयां स्थितः सक्थ्नः कण्डरामाक्षिपेद्यदा॥तदाखो भवजन्तुः पङ्गुः सक्थ्नोईयोरपि ॥४५॥ कम्पते गमनारम्भे खञ्जन्निव च याति यः ॥ कडायखजं तं विद्यान्मुक्तासन्धि प्रबन्धनम् ॥४६॥ कटिमें स्थित हुवा वायु जब ऊरूसंबंधि कंडरा मोटीनसको बैंचता है, तब मनुष्य लँगडा हो .
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