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(४४२)
अष्टाङ्गहृदये-. जिह्वाके अत्यंत लेखनसे और रूखे पदार्थको खानेस, चोटके लगजानेसे, ठोडीकी जडमें स्थित हुवा वायु कुपित होके पीछे दोनों ठोडियोंको चलायमानकर ।। २९ ॥ खुलेहुए मुखपनेको अथवा मूंदे हुये मुखपनेको करता है वह हनु अंसरोग कहाता है तिसकरके कष्टसे चाबना और बोलना होता है ॥ ३० ॥
वाग्वाहिनीशिरासंस्थो जिह्वा स्तम्भयतेऽनिलः॥
जिह्वास्तम्भःस तेनान्नपानवाक्येष्वनीशता ॥ ३१ ॥ वाणीको बहनेवाली नाडियोंमें स्थित हुवा वायु कुपित होके जीभको स्तंभित करता है वह जिह्वास्तंभ रोग है तिसकरके अन्नपान वाक्यमें समर्थपना नहीं रहता ।। ३१ ।।
शिरसा भारहरणादतिहास्यप्रभाषणात्॥उत्रासवऋक्षवथुखर कार्मुककर्षणात् ॥३२॥ विषमादुपधानाच्च कठिनानां च चर्वणात् ॥वायुर्विवृद्धिस्तैस्तैश्च वातलैरूर्वमास्थितः ॥३३॥ वक्री करोति वार्द्धमुक्तं हसितमीक्षितम् ॥ ततोऽस्य कम्पते मूर्द्धा वाक्सङ्गःस्तब्धनेत्रता ॥३४॥ दन्दचालःस्वरभ्रंशःश्रतिहानिः क्षवग्रहः॥ गन्धाज्ञानं स्मृतमोहस्त्रासःसुप्तस्य जायते ॥३५॥ निष्ठीवःपार्श्वतो यायादेकस्याक्षणो निमीलनम् ॥ जत्रोरूर्व रुजा तीव्रा शरीरार्द्धधरेऽपि वा॥३६ ॥ तमाहुरर्दितं केचिदे कायाममथापरे ॥ शिरपर बोझके उठानेसे और अत्यंत हँसनेसे अत्यंत बोलने तथा त्रास, मुख, छींक, तेज, धनुषके खेंचनेसे ॥ ३२ ॥ विषमउपधानसे, कठिन पदार्थके चाबनेसे घातको उपजानेवाले तिस तिस पदार्थोकरके वृद्धिको प्राप्त हुवा और ऊपरको स्थित हुवा वायु ॥ ३३ ॥ आधेमुखको बोलनेको हँसनेको देखनेको टेढाकर देता है, पीछे इस रोगीका शिर काँपता है और वाणी बंद हो जाती है और स्तब्ध रूप नेत्र होतेहैं ॥ ३४ ॥ दंतचाल, स्वरभ्रंश, सुननेकी हानि, छीकोंका नहीं आना, गंधको नहीं जानना, स्मृतिका मोह, शयन करनेके सभय दुःख उपजते हैं ॥३५॥ और दोनों पशलियोंके तर्फ थूकनेके अर्थ प्राप्त होता और जोतोंके ऊपर तीव्र पीडा और आधे शरीरमें तथा नीचेके ओष्ठौ तीव्र पीडा ।। ३६ ॥ इसको कितनेक वैद्य अर्दित अथवा लकुवावात कहते हैं और अन्य वैद्य एकायाम कहते हैं ।।
रक्तमाश्रित्य पवनःकुर्यान्मूर्द्धधराःशिराः ॥३७॥
रूक्षाःसवेदनाःकृष्णाः सोऽसाध्यः स्याच्छिराग्रहः॥ और वायु रक्तको आश्रित हो शिरको धारण करनेवाली नाडियोंको ॥ ३७ ।। रूखी और पीडासे सहित और काली करदेतीहै वह शिरोग्रह रोग कहाताहै यह असाध्यहै ।
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