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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४२७) और वातसे चलायमान तथा रूखे तेजरोमोंवाला लाल तथा काला ॥ ३०॥ और संकोच फुरना रोमहर्ष तोद भेद प्रसुप्तिवाला और तत्काल उत्थान और शांतिसे संयुक्त और पीडित किया शीघ्र ऊंचेको प्राप्तहोनेवाला तथा मिहीन ॥ ३१ ॥ स्निग्ध और गरम मर्दनोकरके शांतिको प्राप्त होनेनाला और अल्पहुआ भी दिनमें बडा होजानेवाला और तिसमें सरसोंके लेपकी तरह हुई त्वचा चिमचिमाहट करती है ऐसा शोजा उपजता है ।। ३२ ॥ पीला और रक्त तथा सफेदपनेसे रहित कांतिवाला और चारोंतर्फसे तांबाके समान रोमोंको करनेवाला शीघ्रही फैलना और शांतिवाले पहिले शरीरके मध्यमें उपजनेवाला और महीन ॥ ३३ ॥ तृषा, दाह, ज्वर, पसीना, द्रव, क्लेद, मद, भ्रमसे संयुक्त और शीतलपदार्थकी अभिलाषावाला और विष्ठोंको भेदितकरनेवाला और गंधवाला और स्पर्शको नहीं सहनेवाला और कोमल शोजा पित्तसे उपजता है ॥ ३४ ॥ खाजवाला और पांड्रूंप रोम और त्वचावाला और कठिन 'शीतल, भारी चिकना कोमल स्थिर स्थानरूप नींद, छर्दी, मंदाग्नि, इन्होंको करनेवाला ॥ ३५ ॥ और पीडितहुआ नहीं ऊपरको प्राप्त होनेवाला कष्टरूप शांति और जन्मवाला और रात्रिमें बलवान् कुश शस्त्रआदिकरके कटाहुआ रक्तको नहीं झिरानेवाला किंतु चिरकालमें पिच्छाको झिरानेवाला ॥ ३६ ॥ स्पर्श परम पदार्थकी आकांक्षा करनेवाला शोजा कफसे उपजता है और कारण तथा लक्षणोंके मिलापसे यथायोग्य दो दो दोषोंके तीन शोजे होते हैं और तीनों दोषोंके लक्षणोंवाला सन्निपातका शोजा जानना ॥ ३७ ॥ अभिघात करके और शस्त्रआदिका छेद भेद क्षतआदि करके और शीतलवात, समुद्रकी वात, भिलावा, कौंचकी फली ॥३८॥ अथवा रसोंकरके और शूक पदार्थोंकरके अत्यंत स्पर्शसे विसर्पवाला अत्यंत उष्मवाला रक्तके समान कांतिवाला और विशेषता करके पित्तके शोजाके समान लक्षणोंवाला शोजा उपजता है ॥ ३९ ॥ विषवाले जीवोंके अंगमें गमन करनेसे तथा तिन्होंके मूतनेसे और जाड दंत नखके पातसे और विषरहित प्राणियोंके ॥ ४० ॥ विष्ठा, मूत्र, वीर्य करके उपहत तथा मलवाले वस्त्रके स्पर्शसे और विषवृक्षकी वायुके स्पर्शसे और विषके योगको अवचूर्णन करनेसेः . ॥४१॥ कोमल चलायमान अवलंबी शीघ्र दाह तथा शूलको करनेवाला.शोजा उपजता है ॥ नवोऽनुपद्रवः शोफः साध्योऽसाध्यःपुरेरितः॥४२॥ स्याद्विसर्पोऽभिघातान्तैर्दोषैर्दूष्यैश्च शोफवत्॥ त्र्यधिष्ठानञ्च तं प्राहुर्बाह्यान्तरुभयाश्रयात् ॥४३॥ यथोत्तरंच दुःसाध्यास्तत्र दोषा यथायथम्॥ प्रकोपनैः प्रकुपिता विशेषेण विदाहिभिः॥४४॥ देहे शीघ्रं विसर्पन्ति तेऽन्तरन्तः स्थिता बहिः॥ बहिष्ठा द्वितये द्विस्था विद्यात्तत्रान्तराश्रयम् ॥ ४५ ॥ मर्मोपतापात्संमोहादयनानांविघटनात् ॥ तृष्णातियोगाद्वेगानां विषमं च प्रवर्त्तनात्॥ ४६॥ आशु चाग्निबलभ्रंशादतो बाह्यं विपर्ययात् ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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