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(४२६)
अष्टाङ्गहृदयेअर्थात् मुर्ग आदिका मांस, सूखामांस, अजीर्ण, परिश्रम, मैथुनको सेवनेवालेके ।। २६ ॥ और पैरोंसे अत्यंत मार्गमें गमन करनेवालेके और घोडा आदिकी सवारीसे गमन करनेवालेके और श्वास, खांसी, अतिसार, बवासीर, पेटरोग, पैरा, ज्वर, ॥ २७ ॥ विषूची, अलसक, छर्दैि, गर्म, विसर्प पांडु, रोगोंसे मिथ्या उपचरित किये वात आदि दोष छातीमें स्थित होके ॥ २८ ॥ ऊपरने अंगोंमें शोजाको करते हैं और बस्तिस्थानमें स्थित हुये दोष नीचेके अंगोंमें शोजाको करते हैं और संपूर्ण अंगोंमें प्राप्त हुये दोष सकलशरीरमें शोजाको करते हैं और अंगअंगमें आश्रितहुये दोष अंगअंगके प्रति शोजाको करते हैं ॥ २९ ॥ नेत्र आदिकोंमें अत्यंत गरमाई, और नाडियोंका दीर्घपना अंगोंका भारीपन ये सब उप तो शोजाका पूर्वरूप जानो॥
वाताच्छोफश्चलो रूक्षः खररोमारुणासितः॥३०॥ सङ्कोच स्पन्दहर्षार्तितोदभेदप्रसुप्तिमान्ाक्षिप्रोत्थानशमः शीघ्रमुन्नमत्पीडितस्तनुः३१॥स्निग्धोष्णमर्दनैः शाम्येद्गात्रमल्पो दिवा महान्॥ त्वक् च सर्षपलिप्तेव तस्मिंश्चिमिचिमायते॥३२॥पीतरक्तासिताभासः पित्तादाताम्ररोमकृत् ॥ शीघ्रानुसारप्रशमो मध्ये प्राग्जायते तनुः ॥३३॥ सतृड्दाहज्वरस्वेददवक्लेदमद भ्रमः॥शीताभिलाषी विड्भेदी गन्धी स्पर्शासहो मृदुः॥३४॥ कण्डू मान्पाण्डुरोमत्वक्कठिनः शीतलो गुरुः॥ स्निग्धः श्लक्ष्णः स्थिरः स्त्यानो निद्राच्छर्यग्निसादकृत् ॥ ३५॥ आक्रान्तोनो नमेत्कृच्छ्रशमजन्मा निशाबलः ॥ स्रवेन्नासृचिरात्पिच्छां कुशशस्त्रादिविक्षतः ॥३६॥ स्पर्शोष्णकाली च कफाद्यथास्वं द्वन्द्वजास्त्रयः॥ सङ्कराद्धेतुलिङ्गानां निचयानिचयात्मकः॥३७॥ अभिघातेनशस्त्रादिच्छेदभेदक्षतादिभिः॥हिमानिलादध्यनिलै भल्लातकपिकच्छुजैः॥३८॥ रसैःशूकैश्च संस्पर्शाच्छयथुःस्या- . द्विसर्पवान्।भृशोष्मा लोहिताभासः प्रायशःपित्तलक्षणः॥३९॥ विषजःसविषप्राणिपरिसर्पणमूत्रणात्ादंष्ट्रादन्तनखापातादविषप्राणिनामपि॥४०॥ विण्मूत्रशुक्रोपहतमलवद्वस्त्रसङ्करात् ॥ विषवृक्षानिलस्पर्शाद्गरयोगावचूर्णनात् ॥४१॥मृदुश्चलोऽवलम्बी च शीघ्रो दाहरुजाकरः॥
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