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( ४२८ )
अष्टाङ्गहृदये
तत्र वातात्परीसर्पो वातज्वरसमव्यथः ॥४७॥ शोफस्फुरणनिस्तोदभेदोयामार्तिहर्षवान् । पित्ताद्द्रुतगतिः पित्तज्वरलिङ्गोऽति लोहितः ॥ ४८ ॥ कफात्कण्डूयुतः स्निग्धः कफज्वरसमानरुक् ।। स्वदोषलिङ्गैश्रीयन्ते सर्वस्फोटैरुपेक्षिताः ॥ ४९ ॥ ते पक्काभिन्नाः स्वं स्वं च विभ्रति व्रणलक्षणम् ॥
नया तथा उपद्रवरहित शोजा साध्य होता है और पहिले कहा अर्थात् अनेक उपद्रवोंसे संयुक्त और मनुष्य के शरीर में पैरोंसे फैलनेवाला और नारकेि शरीर में मुखसे फैलनेवाला और दोनों के शरीरमें कुक्षी और गुदासे फैलनेवाला शोजा असाध्य है ॥ ४२ ॥ वात, पित्त, कफ इन्हों करके और बातपित्त, वातकफ, पित्त कफ इन्हों करके और सन्निपात करके दूष्य और 'अभिघातसे शोजेकी समान विसर्प रोग हैं और आत्रेयआदि मुनि बाहिर भीतर दोनों आश्रयवाले होनेसे तीन अधिष्ठानवाले विसर्पको कहते हैं अर्थात् ॥ ४३ ॥ ये तीनों उत्तरोत्तर क्रमसे दुस्साध्य हैं, तिस विसर्पमें तिक्त ऊषणआदि प्रकोपनद्रव्यों करके और विशेष करिके विदाही पदार्थोकरके यथायोग्य कुपितहुये वातआदिदोष ॥ ४४ ॥ शीघ्र देहमें फैलते हैं, परंतु भीतरको स्थित हुये भतिरको फैल हैं और बाहिर स्थित हुये बाहिरको फैलते हैं, भीतर और बाहिर स्थितहुये भीतर और बाहिरको फैलते हैं और तिन विसर्पोंके मध्य में भीतरको आश्रयवाले विसर्पको ॥ ४५ ॥ मर्मके उपतापसे और मूर्च्छासे और कर्णनासिकाआदिको विशेष करके अत्यंत चलनेसे और तृष्णा के अतियोग और मूत्रआदि वेगों के विमपने प्रवृत्त होनेसे ॥ ४६ ॥ और शीघ्रही अग्नि और बलके नाशसे जाने और इन लक्षणों विपरीत लक्षणोंसे करके बाहिरको आश्रयवाले विसर्पको जाने, तिन विसपोंमें वातज्वरके समान पीडावाला ॥ ४७ ॥ और शौजा, फुरना, चभका, भेद, लंबापन, रोमहर्ष, इन्होंसे संयुक्त विसर्प रोग बातसे होता है और पित्तसे शीघ्र गतिवाला और पित्तज्वर के लक्षणों के समान लक्षणोंवाला और अत्यंत रक्त विसर्प होता है ॥ ४८ ॥ कफसे खाजिकरके संयुक्त और चिकना और कफज्वर के समान पीडावाला विसर्प होता है और जो सब प्रकार के विसर्पोंमें चिकित्सा नहीं की जावे तो अपने २ दोषके अनुसार लक्षणोंवाले फोडोंसे व्याप्त होजाते हैं ॥ ४९ ॥ और पककर भिन्नहुये वे विसर्प रोग अपने अपने व्रणके लक्षणको धारण करते हैं ॥ वातपित्ताज्ज्वरच्छर्दिमूर्च्छातीसारतृद्भ्रमैः॥५०॥ अस्थिभेदाग्निसदनतम कारोचकैर्युतः॥ करोति सर्वमङ्गञ्चदीप्ताङ्गारावकीर्ण वत् ॥ ५१ ॥ यं यं देशं विसर्पश्च विसर्पति भवेत्स सः॥ शान्ताङ्गारा सितो नीलो रक्तो वाशु च चीयते ॥ ५२ ॥ अग्निदग्ध इव स्फोटैः शीघ्रगत्वाहुतञ्च सः ॥ मर्मानुसारी वीसर्पः स्याद्वातोऽतिबलस्ततः ॥५३॥ व्यथेताङ्गं हरेत्संज्ञा निद्राञ्च श्वासमीरयेत्॥ हिध्मां
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