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(३९२)
अष्टाङ्गहृदयेमिलापसे मिश्रित लक्षणोंवाले बवासीरके मस्से होते हैं और सन्निपातसे तीन दोषोंके लक्षणोंवाले बवासीरके मस्से होते हैं ॥ ४२ ॥ .
रक्तोल्बणा गुदे कीलाः पित्ताकृतिसमन्विताः॥वटप्ररोहसदृशा गुञ्जाविद्रुमसन्निभाः॥ ४३ ॥ तेऽत्यर्थं दुष्टमुष्णं च गाढविट प्रतिपीडिताः ॥ स्रवन्ति सहसा रक्तं तस्य चातिप्रवृत्तितः॥ ॥४४॥ भेकाभः पीड्यते दुःखैःशोणितक्षयसम्भवैः॥हीनवर्ण बलोत्साहो हतौजाः कलुषेन्द्रियः॥४५॥ रक्तकी अधिकतासे गुदामें पित्तके मस्सोंके लक्षणोंकरके अन्वित और बड़का अंकुरके तुल्य चिरमठी और मूंगेके समान ॥ ४३ ॥ और गाढी विष्ठासे प्रतिपीडितहुये और रक्तकी अत्यंत प्रवृत्तिसे कारणके विना अत्यंत दुष्ट और अत्यंत गरम रक्तको झिराते हैं ॥ ४४ ॥ और मेंडकके समान कांतिवाले रक्तके क्षयसे उपजे दुःखोंकरके पीडित और वर्ण, बल, उत्साहकी हनितावाले नष्टहुये पराक्रमवाले और कलुषरूप इंद्रियोंवाला मनुष्य होजाता है, ये सब रक्तकी अधिकतावाले बवासीरके मस्सोंके लक्षण है ।। ॥ ४५ ॥
मुद्गकोद्रवजूर्णाहकरीरचणकादिभिः ॥ रूक्षैः संग्राहिभिर्वायुः स्वस्थाने कुपितो बली॥४६॥ अधोवहानि स्रोतांसि संरुध्याधः प्रशोषयन् ॥ पुरीषं वातविण्मूत्रसंगं कुर्वीत दारुणम् ॥४७॥ तेन तीत्रा रुजा कोष्ठपृष्ठहृत्पाश्र्वगा भवेत् ॥ आध्मानमुदरा वेष्टो हल्लासः परिकर्तनम् ॥४८॥ बस्तौ च सुतरां शूलं गंडश्वयथुसम्भवः ॥ पवनस्योर्ध्वगामित्वं तंतश्छZरुचिज्वराः ॥ ४९ ॥ हृद्रोगग्रहणीदोषमूत्रसंगप्रवाहिकाः बाधिर्यतिमिर श्वासशिरोरुकासपनिसाः ॥ ५० ॥ मनोविकारस्तृष्णास्त्रपित्त गुल्मोदरादयः॥ ते ते चं वातजा रोगा जायन्ते भृशदारुणाः ॥५१ ॥ दुर्नाम्नामित्युदावर्तः परमोऽयमुपद्रवः॥ वाताभिभूतकोष्ठानां तैर्विनापि स जायते ॥ ५२ ॥ मूंग, कोद् , जूर्णाह्व, करीर, चना आदि रूक्ष और संग्राहीरूप द्रव्योंकरके अपने स्थानमें कुपितहुआ और बलवाला अपानवायु ॥ ४६ ॥ नीचेको वहनेवाले स्रोतोंको रोककर और नीचेके विष्टाको शोषताहुआ पीछे अधोवात विष्ठा मूत्रको अत्यंत बंध करता है ॥ ४७ ॥ तिसकरके कोष्ठ, पृष्ठभाग, हृदय, पशलीमें प्राप्त होनेवालो तीव्र पीडा और अफारा उदरका
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