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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थानं भापाटीकासमेतम् (३९३) वेष्टन थुकथुकी परिकर्तन ॥ ४८ ॥ बस्तिस्थानमें अत्यंत शूल और दोनों कपोलोंमें शोजाकी उत्पत्ति होती है और अपानवायुके ऊर्ध्वगमन करनेसे छईि, अरुची, ज्वर ॥ ४९॥ हृद्रोग, ग्रह णीदोष, मूत्रका बंध, प्रवाहिका बधिरपना, तिमिररोग, श्वास, शिरका शूल खांसी, पीनस ॥१०॥ मनका विकार, तृषा, रक्तपित्त, गुल्म, उदररोग उपजतेहैं और अनेक प्रकारके वातसे उपजे दारुण रोग उपजते हैं ॥ २१॥ और यह उदावर्त रोग अर्शरोगोंका परम उपद्रव है और वात करके अभिभूत कोष्ठवाले मनुष्योंके अर्शरोगके विना भी उदावर्त रोग उत्पन्न होता है ॥ ५२ ॥ सहजानि त्रिदोषाणि यानि चाभ्यन्तरे बलौ ॥ स्थितानि तान्यसाध्यानि याप्यन्तेऽग्निवलादिभिः ॥५३ ॥ द्वन्द्वजानि द्वितीयाया बलौ यान्याश्रितानि च ॥ कृच्छ्रसाध्यानि तान्याहुः परिसंवत्सराणि च ॥ ५४ ॥ जो गुदाके भीतर बलीमें साथ जामेंहुये और जन्मनेके पीछे त्रिदोषसे उत्पन्न हुये जो अर्शरोग स्थित हैं वे असाध्य कह है परंतु अग्नि बल आदिकरके वे भी कष्टसाध्य होजाते हैं ॥५३ ॥ और दो दोषोंसे उपजेहुये अर्शरोग गुदाकी दूसरी वलीमें जोआश्रित हैं वे तथा उपजनेके कालसे एक वर्षको उलंघन करनेवाले अर्शरोग कष्टसाध्य कहे हैं ॥ १४ ॥ बाह्यायां तु वलौ जातान्येकदोषोल्बणानि च ॥अशांसि सुख साध्यानि न चिरोत्पतितानि च ॥ ५५॥मेद्रादिष्वपि वक्ष्यन्ते यथास्वं नाभिजानि तु ॥ गंडूपदास्यरूपाणि पिच्छिलानि मृदूनि च ॥ ५६॥ और एकदोषकी अधिकतासे उपजे जो गुदाकी बाहिरली वलीमें है और चिरकालसे नहीं उत्पन्नहुये हैं अर्थात् एकवर्षके भीतरही उत्पन्न हुये हैं ऐसे अर्शरोग सुखसाध्य होते हैं ॥ ५५ ॥ और अपने अपने अध्यायमें अर्शरोगोंको लिंग, योनि, कान, नासिका इन आदिमें भी कहेंगे और नाभिमें उपजनेवाले अर्शरोग गिंडोवाका मुखके समानरूपवाले और पिच्छिल और कोमल होते हैं ॥ १६ ॥ व्यानो गृहीत्वा श्लेष्माणं करोत्यर्शस्त्वचो बहिः।कीलोपमं स्थि । रखरं चर्मकीलं तु तं विदुः॥ ५७॥वातेन तोदः पारुष्यं पित्ता दसितरक्तता॥श्लेष्मणा स्निग्धता तस्य ग्रथितत्वं सवर्णता॥५८॥ व्यानवायु कफको ग्रहणकरके त्वचासे बाहिर अर्श रोगको करती है तब कीलके समान उपमावाला और स्थिर और तीक्ष्ण मस्से उपजते हैं तिसको चर्मकील कहते हैं ॥ १७ ॥ चर्मकीलमें वातकी अधिकताकरके चर्मका कठोरपना होता है, और पित्तकी अधिकतासे सफेदपनासे रहित For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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