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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ३८५ )
रजोगुणकी प्रधानतावालेके मोहकी प्रधानतावालेके तीन रोग होते हैं || २४ ॥ अर्थात् रस, रक्त, बुद्धि, इन्होंको बहनेवाले स्रोतोंके रोकने उत्पन्न होनेवाले और मंद, मूर्च्छा, संन्यास नामोंवाले, और उत्तरोत्तर क्रमकरके अत्यन्त बलवाले होते हैं ॥ २५ ॥ इन मदआदियों में मद सात प्रकारका है, बातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, रक्तज, मद्यज, विषज, कठोर, बहुत, जादें, शीघ्र, बोलना, और चलना और प्रकृतिके विपर्ययपनेसे चेष्टा करनी ||२६|| और रूखा धूम्रवर्ण शरीरका होजाना, यह लक्षण मनुष्यको वातसे उपजे मदमें होता है और पित्तकरके उपजे मदमें क्रोधी, रक्त और पीली कांति वाला और कलहको चाहनेवाला मनुष्य होता है ||२७|| और कफसे उपजे मदमें स्वरूप और असंबद्ध वचनको बोलनेवाला और पांडुशरीरवाला ध्यानमें तत्पर और आलस्यवाला मनुष्य होता है और सन्निपातसे उपजे मेदमें सब दोषोंके लक्षणोंवाला मनुष्य होता है | और रक्तसे उपजे मदमें स्तब्धरूप शरीर और दृष्टिवाला ॥ २८ ॥ और पित्तज मदके लक्षणकरके संयुक्त मनुष्य होता है और मदिराकरके उपजे मंदमें विकृतचेष्टा विकृतस्वर विकृतशरीर होजाता है और विषसे उपजे मदमें कंप व अत्यंत निद्रा उपजती है, यह विषजमद सब मदों से अधिक है |॥ २९ ॥ रक्तआदिसे उपजे मदोंमें अपने अपने लक्षणोंके उत्कर्षकरके वातआदि दोषों को लक्षित करै ॥
अरुणं कृष्णनीलं वा खं पश्यन्प्रविशेत्तमः ॥ ३० ॥ शीघ्रं च प्रतिबुध्येत हृत्पीडा वेपथुर्भ्रमः ॥ काश्यं श्यावारुणा छाया मूर्च्छाये मारुतात्मके ॥ ३१ ॥ पित्तेन रक्तं पीतं वा नभः पश्यविशेत्तमः ॥ विबुध्येत च सस्वेदो दाहतृट्तापपीडितः॥३२॥ भिन्नविण्नीलपीताभो रक्तपीताकुलेक्षणः ॥ कफेनमेघसङ्काशं पश्यन्नाकाशमाविशेत् ॥ ३३ ॥ तमश्विराच्च बुध्येत सहृल्लासः प्रसेकवान् ॥ गुरुभिः स्तिमितैरङ्गैरार्द्रचर्मावनद्धवत् ॥ ३४ ॥ सर्वाकृतिस्त्रिभिर्दोषैरपस्मारइवापरः । पातयत्याशु निश्चेष्टं विना बीभत्सचेष्टितैः ॥ ३५ ॥
लाल, कृष्ण अथवा नीला आकाशको देखता हुआ मनुष्य मूढ अवस्थाको प्राप्त होवै ॥ ३० ॥ और शीघ्रही संज्ञाको प्राप्त होजावे हृदयमें पीडा, कंप, भ्रम, कृशपना, धूम्रवर्णवाली लाल छाया उपजै तो ये सब लक्षण वातसे उपजे मूर्च्छारोगमें कहे हैं ॥ ३१ ॥ पित्त से उपजे मूर्च्छारोगमें रक्त अथवा पीला आकाशको देखता हुआ मनुष्य मूढ अवस्थाको प्राप्त होवे और पसीनाओं से संयुक्त होके संज्ञाको प्राप्त होजावे और दाह, तृषा, ताप इन्होंसे पीडित होवे ॥ ३२ ॥ और भिन्नविष्ठावाला हो, नील और पीली कांतिवाला हो, लाल और पीलेपनकरके आकुल नेत्रोंवाला हो ये लक्षण होते हैं और कफकरके उपजे मूर्छारोग में मेघ के समान कांतिवाले आकाशको देखता हुआ मनुष्य मूढ
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