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(३८४)
अष्टाङ्गहृदयेध्वंसकविक्षयौ।भवेतां मारुतात्कष्टौ दुर्वलस्य विशेषतः॥२१॥ ध्वंसके श्लेष्मनिष्ठीवः कण्ठशोषोतिनिद्रता ॥शब्दासहत्वं तन्द्रा च विक्षयेऽङ्गशिरोऽतिरुक् ॥२२॥ हृत्कण्ठरोगः संभोहः कासस्तृष्णावमिवरः॥ निवृत्तो यस्तु मद्येभ्यो जितात्मा बुद्धिपूर्वकृत्॥२३॥विकारैःस्पृश्यते जातु न स शारीरमानसैः॥ वातके मदात्ययमें विशेषकरके जागना, श्वास, कम्प, मस्तकमें शूल और स्वप्नेमें घूमना, ऊपरको चढना, प्रेतोंके संग बोलना ये सब उपजते हैं ॥ १८ ॥ और पित्तकरके उपजे मदात्ययमें दाह, ज्वर, पसीना, मोह अतिसार, तृषा, भ्रम, हरा, और पीला देह, नेत्र तथा कपोलोंकी ललाई होती है ॥ १९ ॥ कफके मदात्ययमें छर्दि थुकथुकी, नींद, उदर्द, अंगोंका भारीपन उपजताहै और सन्निपातसे उपजे मदात्ययमें सब दोषोंके चिह्न उपजते हैं और जो उचित मदिराकोभी चिरकालतक त्याग पीछे अत्यन्तमात्रकरके पीवै ॥ २० ॥ और जो अनुचित मद्यको अत्यन्त मात्रकरके पीवै तिन दोनों मनुष्योंके वायुसे कष्टसाध्यरूप ध्वंसक और विक्षय ये दोनों रोग उपजते हैं और दुर्बल मनुष्यके विशेषताकरके उपजते हैं ॥ २१ ॥ध्वंसकमें कफका थूकना कण्ठका शोष, अत्यन्त नींद पाना, शब्दको नहीं सहना, तन्द्रा ये उपजते हैं. और विक्षयमें अंगमें और शिरमें अत्यन्त शूल ॥ २२॥ हृदय और कण्ठमें रोग, मोह, खांसी, तृषा, छर्दि, ज्वर, उपजते हैं, जो जितात्मा और बुद्धि के अनुसार विचारके करनेवाला मनुष्य मदिरासे निवृत्त होता है ॥ २३ ॥ वह कदाचित्भी शरीरसे और मनसे उपजे विकारों से संयुक्त नहीं होता ॥
रजोमोहाहिताहारपरस्य स्युस्त्रयो गदाः॥ २४ ॥ रसासृक्चेतनावाहिस्रोतोरोधसमुद्भवाः॥ मदमूर्छायसंन्यासा यथोत्तरबलोत्तराः॥२५॥मदोऽत्र दोषैः सर्वैश्च रक्तमद्यविषैरपि। सक्तानल्पद्रुताभाषाश्चलः स्खलितचेष्टितः ॥ २६ ॥ रूक्षस्यावा रुणतनुर्मदे वातोद्भवे भवेत् ॥ पित्तेन क्रोधनो रक्तपतिाभः कलहप्रियः ॥ २७॥ स्वल्पासम्बद्धवाक्पाण्डुः कफाद्धयानपरोऽलसः॥ सर्वात्मा सन्निपातेन रक्तात्स्तब्धाङ्गदृष्टिता॥२८॥ पित्तलिङ्गश्च मद्येन विकृतेहास्वरांगता॥ विषे कम्पोऽतिनिद्रा च सर्वेभ्योऽभ्यधिकस्तु सः॥ २९॥ लक्षयल्लक्षणोत्कर्षाद्वाता दीञ्छोणितादिषु॥
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