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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३८३) वातपित्ता दृढाग्नयः॥ १२ ॥ विपर्ययेऽतिमाद्यन्ति विश्रब्धाः कुपिताश्च ये॥ मयेन चाम्लरूक्षेण साजीणे बहुनाति च ॥१३॥ वातापित्तात्कफात्सर्वैश्चत्वारः स्युर्मदात्ययाः ॥सर्वेऽपि सर्वैर्जायन्ते व्यपदेशस्तु भूयसा ॥ १४ ॥ बलवाले भोजनको कियेहुये और अत्यन्त भोजनको खानेवाले स्निग्ध और सत्वयुक्त अवस्थावाले मदिराको नित्यप्रति सेवनेबाले मदिराके पीनेवाले मनुष्योंके कुलमें उपजनेवाले मेद और कफकी अधिकतावाले वात और पित्तकी मन्दता वाले तेज अग्निवाले मनुष्य अत्यन्त मदको नहीं प्राप्त होते है ॥११॥ १२ ॥ और इन सबोंसे विपरीत वर्तनेवाले अमृतके समान मद्यको माननेवाले क्रोधी ये अम्ल और खट्टेरूप मद्यकरके अति मदको प्राप्त होतेहैं और अजीर्णमें पान की मदिरामें मनुष्य अत्यन्त मदको प्राप्त होताहै और अत्यन्त पान की मदिराकर्केभी मनुष्य अत्यन्त मदको प्राप्त होता हैं ॥ १३ ॥ वात, पित्त, कफ, सन्निपात इन्होंसे चार प्रकारके मदात्यय रोग होते हैं परन्तु सब प्रकारके मदात्ययरोग सब दोषोंसे उपजते हैं और बहुलताकरके यह वातका मदात्यय है इस प्रकार व्यपदेश अर्थात् संज्ञा जाननी ॥ १४ ॥ सामान्य लक्षणं तेषां प्रमोहो हृदयव्यथा ॥ विड्भेदः प्रततं तृष्णा सौम्याग्नेयो ज्वरोऽरुचिः॥ १५ ॥ शिरःपास्थिहकम्पोमर्मभेदस्त्रिकग्रहः॥उरोविबन्धस्तिमिरं कासःश्वासः प्रजागरः॥ १६ ॥ स्वेदोऽतिमात्रं विष्टम्भः वयथुश्चित्तविभ्रमः॥प्रलापश्छर्दिरुक्क्लेशो भ्रमो दुःस्वप्नदर्शनम् ॥१७॥ तिन मदात्ययोंका सामान्य लक्षण कहते हैं मोह, हृदयमें पीडा, विड्भेद, निरन्तर तृषा, कफ पित्तका ज्वर, अरुची ॥ १५॥ शिर, पशली, हृदय हड्डीका कंपना, मर्मोका भेद, त्रिक स्थानका बंधा, छातीका बन्धा, अन्धेरी, खांसी श्वास, जागना ॥ १६ ॥ अत्यन्त पसीना, विष्टंभ, शोजा, चित्तभ्रम, प्रलाप, छर्दि, उक्लेश, भ्रम, दुष्टस्वप्नोंकादेखना होताहै ॥ १७ ॥ विशेषाजागरश्वासकम्पमर्द्धरुजोऽनिलात् ॥ स्वप्ने भ्रमत्युत्प तति प्रेतैश्च सह भाषते ॥ १८॥ पित्तादाहज्वरस्वेदमोहातीसारतृभ्रमाः ॥ देहो हरितहारिद्रो रक्तनेत्रकपोलता ॥१९॥ श्लेष्मणश्छर्दिहृल्लासनिद्रोदर्दाङ्गगौरवम् ॥ सर्वजे सर्वलिङ्गत्व मुक्त्वा मद्यं पिवेत्तु यः॥ २० ॥ सहसाऽनुचितं चान्यत्तस्य For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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