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(३८२)
अष्टाङ्गरूदयेते॥४॥ मध्यमोत्तमयोः संधिं प्राप्य राजसतामसः ॥ निर..
कुंश इव व्यालो न किञ्चिन्नाचरेजडः ॥ ५॥ __तीक्ष्णआदि दशगुणोंकरके मंद, शीत, स्निग्ध, सांद्र, स्थूल, मधुर, चिरकृत, गुरु, श्लक्ष्ण, पिच्छिल इन दश पराक्रमसंबंधी गुणोंको सव तर्फसे दुष्टताको प्राप्तकर मद्य चित्तको विकारके अर्थ प्राप्त करता है ॥ ३ ॥ पहिले मदमें और दूसरे मदमें स्थितहुआ और दुष्ट विकल्पोंकरके हतहुआ कार्य और अकार्यको नहीं जाननेवाला वह मनुष्य सुखसे अलग होता है ॥ ४ ॥ दूसरा और तीसरा मदकी संधिको प्राप्तहुआ रजोगुणी तमोगुणी मनुष्य जड होकरके सब अशुभकर्मोंको आचरित करताहै जैसे अंकुशसे रहित दुष्ट हाथी ॥ ५ ॥ इयं भूमिरवद्यानां दौःशील्यस्येदमास्पदम् ॥ एकोऽयं बहुमा
या दुर्गतेदेशिकः परम् ॥६॥ निश्चेष्टःशववच्छेते तृतीयेतु मदे स्थितः॥मरणादपि पापात्मा गतः पापतरां दशाम् ॥७॥ धर्माधर्म सुखं दुःखमर्थानर्थं हिताहितम् ॥ यदासक्तो न जानाति कथं तच्छीलयेदुधः ॥ ८ ॥ मये मोहो भयं शोकः क्रोधो मृत्युश्च संश्रिताः॥सोन्मादमदमूर्छायाः सापस्मारापतानकाः॥९॥ यत्रैकः स्मृतिविभ्रंशस्तत्र सर्वमसाधुयत् ॥ निंद्य मनुष्योंकी यह मदिरा भूमि अर्थात् आकारहै और दुःशीलपनेकी यह मदिरा आस्पद है और यह मदविशेष एकही है परंतु अनेकमुखोवाली यह मदिरा परमदुर्गतिका आचार्य है ॥ ६॥ तीसरे मदमें स्थितहुआ मनुष्य चेष्टासे रहितं और मुर्दाके समान शयन करता है और यही पापात्मा मनुष्य मरणसभी अत्यंत पापरूपदशामें प्राप्त होता है ॥ ७॥ जिस मदिरामें आसक्त हुआ मनुष्य धर्म, पाप, सुख, दुःख, अर्थ, अनर्थ, हित, अहित इन्होंको नहीं जानता तब कैसे बुद्धिमान् मनुष्य मदिराका अभ्यास करै अर्थात् कभी नहीं करै ।। ८ ।। अत्यंत पानकी मदिरामें मोह, भय, शोक, क्रोध मृत्यु, उन्माद, मद, मूछी, अपस्मार, अपतानक ॥ ९ ॥ ये सब उपजतें हैं और जिसमदिरामें स्मृतिका लोप होता है और संपूर्ण अशोभन होता है ।
अयुक्तियुक्तमन्नं हि व्याधये मरणाय वा ॥१०॥
मद्यं त्रिवर्गधीधैर्यलज्जादेरपि नाशनम् ॥ और युक्तिके बिना युक्त किया अन्नभी रोगके अर्थ अथवा मृत्युके अर्थ कहा है ॥ १० ॥ धर्म, अर्थ, काम, बुद्धि, धैर्य, लज्जा, आदिको नाशनेवाला मद्य है ॥
नातिमाद्यन्ति बलिनः कृताहारा महाशनाः ॥११॥ स्निग्धाः सत्त्ववयोयुक्ता मद्यनित्यास्तदन्वयाः॥ मेदःकफाधिकामन्द
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