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अष्टाङ्गहृदयेअवस्थाको प्राप्त होवै ॥ ३३ ॥ और थुकथुकीवाला और भारी तथा गीलीचर्मकरके वेष्टितहुयेकी तरह अंगोंकरके प्रसेकवाला होके चिरकालमें संज्ञाको प्राप्त होता है ।। ३४ ।। अब तीन दोषोंकरके उपजे मूछीरोगमें सब दोषोंकी आकृतिवाले मनुष्यको भयानक चेष्टितोंको वर्जिकर दूसरे अपस्मारकी तरह गिरा देवै ॥ ३५ ॥
दोषेषु मदमूर्छायाः कृतवेगेषु देहिनाम्॥स्वयमेवोपशाम्यन्ति सन्न्यासो नौधैर्विना ॥३६॥ वाग्देहमनसां चेष्टामाक्षिप्यातिबला मलाः॥ सन्न्यासंसन्निपतिताः प्राणायतनसंश्रयाः॥ ॥३७॥ कुर्वन्ति तेन पुरुषः काष्ठभूतो मृतोपमः ॥ म्रियेत
शीघ्रं शीघ्रं चेचिकित्सा न प्रयुज्यते ॥३८॥ .. मनुष्योंके कृत वेगोंवाले दोषोंमें मद और मूर्छा ये रोग औषधोंके विना आपही शांत होजातेहैं और संन्यास रोग औषधोंके विना शांत नहीं होता ॥ ३६ ॥ वाणी, देह, मन इन्होंकी चेष्टाको अक्षेपितकर और इकडेहुये विशेषकरके हृदयमें आश्रितहुये वात, पित्त, कफ ये संन्यासरोगको करते हैं ॥ ३७॥ तिसकरके काष्ठरूप और मरेके समान उपमावाला मनुष्य होजाता है जो इसकी शीघ्र चिकित्सा नहीं कीजावे तो तत्काल मरजाता है ॥ ३८ ॥
अगाधे ग्राहबहुले सलिलौघ इवातटे ॥ सन्न्यासे विनिमज्जन्तं नरमाशु निवर्तयेत् ॥३९॥ मदमानरोषतोषप्रभृतिभिरारी भिनिजैः परिष्वङ्गः॥युक्तायुक्तं च समं युक्तिवियुक्तेन मद्येन ॥४०॥ बलकालदेशसात्म्यप्रकृतिसहायामयवयांसि । प्रविभज्य तदनुरूपं यदि पिबति ततः पिबत्यमृतम् ॥ ४॥ अगाधरूप और बहुतसे ग्राह और मच्छोंसे संयुक्त और तटोंसे वर्जित पान के समूहमेंसे जैसे बतेहुये मनुष्यको शीघ्र निकासते हैं तैसे संन्यासरोगमें डूबते हुये मनुष्यको तत्काल निकास॥३९॥ मद, मान, रोष, तोष आदिसे और अपने शत्रुओंसे मिलाप युक्तिसे अयुक्त किये मदिराकरके होता है और युक्त तथा अयुक्तकी समता प्राप्त होती है ॥ ४० ॥ बल, काल, देश, योग्यप्रकृति, सहाय, रोग, अवस्था इन्होंका विभागकरके जो मनुष्य यथायोग्य मदिराको पीवता है पीछे वह मदिरा अमृतके समान फल देती है । ४१ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
निदानस्थाने षष्ठोध्यायः ॥ ६ ॥
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