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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३७७) और पीनसआदि चिह्नोंकी अल्पतासेभी संयुक्तहो परंतु व्याधि और औषध केवलको नहीं •सहनेवाले क्षयरोगीको वैद्य वर्जिदेवे और पीनसआदि सब लक्षणवालाभी हो परंतुं व्याधि और औषधके बलको सहै तिस राजरोगीकी चिकित्साको वैद्य करै ॥ २३ ॥ दोषैर्व्यस्तैः समस्तैश्च क्षयात्षष्ठश्च मेदसा॥ स्वरभेदो भवेत्तत्र क्षामो रूक्षश्चलः स्वरः॥२४॥ शूकपूर्णाभकण्ठत्वं स्निग्धोष्णोपशयोऽनिलात् ॥ पित्तात्तालुगले दाहः शोष उक्ताव सूयनम् ॥२५॥ लिम्पन्निव कफात्कण्ठं मन्दः खुरखुरायते ॥ स्वरो विबद्धः सर्वैस्तु सर्वलिंगः क्षयात्कषेत् ॥ २६ ॥धूमायतीव चात्यर्थ मेदसा श्लेष्मलक्षणः॥ कृच्छ्रलक्ष्याक्षरश्चात्र सर्वैरन्त्यं च वर्जयेत् ॥ २७ ॥ अरोचको भवेदोषैजिह्वाहृदय संश्रयैः। सन्निपातेन मनसः सन्तापेन च पञ्चमः ॥२८॥ वात, पित्त, कफ इन्होंकरके और सन्निपातकरके और क्षयसे छठे मेदकरके स्वरभेद छ: प्रकारका है और तिन छहों स्वरभेदोंमें वातकी अधिकतासे सहनेवाला रूखा और चलायमान स्वर होजाता है ॥ २४ ॥ और शूककरके पूरितकी तरह कंठका होजाना स्निग्ध और गरम उपशय उपजते हैं और पित्तकी अधिकतासे उपजे स्वरभेदमें तालू और गलमें दाह तथा शोष और बोलनेमें नहीं सहना अर्थात् वाक्यको कहने में समर्थ नहीं रहता है ।। २५ ॥ कफकी अधिकतासे उपजे. स्वरभेदमें कंठको लेपित करताकी तरह कंठमें खुरखुर शब्द होताहै और बोलनेमै स्खलनरूप और मंद स्वर होजाता है, और सब दोषोंसे सब लक्षणोंवाला स्वरभेद होता है और क्षयसे स्वरभेद विध्वस्त होता है ॥ २६ ॥ और क्षयका स्वरभेदी मनुष्य अत्यंत धूमाके निकसनेकी तरह नासिकाआदि देशों में लक्षित होता है और मेदकरके कफजनित स्वरभेदके लक्षणोंवाला स्वरभेद होता है अधवा कष्टकरके लक्षित अक्षरवाला स्वरभेद होता है, इन सबोंमें मेदसे उपजे स्वरभेदको वैद्य त्यागे॥ २७ ॥ जीभ और हृदयमें आश्रितहुये वातआदि दोषोंकरके तीन अरोचक होतेहैं और -सन्निपातकरके चौथा और मनके संतापकरके पांचवाँ अरोचक होता है ॥ २८॥
कषायतिक्तमधुरं वातादिषु मुखं क्रमात् ॥ सर्वोत्थे चिरसं शोकक्रोधादिषु यथामलम् ॥२९॥ छर्दिदोषैः पृथक्सष्टैि रथैश्च पञ्चमी ॥ उदानो विकृतो दोषान्सर्वानप्यूर्ध्वमस्यति ॥३०॥ तासूत्क्लेशास्यलावण्यप्रसेकारुचयोऽग्रगाः ॥ नाभिपृष्ठं रुजवायुः पार्श्वे चाहारमुक्षिपेत् ॥३१॥ ततो विच्छिंनमल्पाल्पं कषायं फेनिलं वमेत् ॥ शब्दोद्गारयुतं कृष्णमच्छं
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