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अष्टाङ्गहृदये
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( ३७८ )
कृच्छ्रेण वेगवान् ॥ ३२ ॥ कासास्यशोषहृन्मूर्द्धस्वरपीडाकुमा न्वितः ॥ पित्तात्क्षारोदकनिभं धूम्र हरितपीतकम् ॥ ३३ ॥ सासृगम्लं कटूष्णं च तृण्मूर्च्छातापदाहवत् ॥ कफात्स्निग्धं घनं शीतं श्लेष्मतन्तुगवाक्षितम् ॥ ३४ ॥ मधुरं लवणं भूरि प्रसक्तलोमहर्षणम् ॥ मुखश्वयथुमाधुर्य्यतन्द्राहृल्लासकासवत् ॥ ३५ ॥ सर्वलिङ्गामलैः सर्वैरिष्टोक्ता या च तां त्यजेत् ॥ पूत्यमेध्याशुचिद्विष्टदर्शनश्रवणादिभिः ॥ ३६ ॥ तप्ते चित्ते हृदिक्लिष्टे छर्दिद्विष्टार्थयोगजा ॥
वातआदिसे उपजेहुये अरोचकोंमें कसैला- कडुआ, मधुर, तिक्त मुख क्रमसे होता है और सन्निपातसे उपजेहुये अरोचकमें रससे रहित मुख होता है, और शोषं क्रोध आदिसे अरोचकों में दोष के अनुसार मुखका स्वाद होता है ॥ २९ ॥ वात, पित्त, कफ इन दोषों करके और सन्नि - पातकरके और नहीं वांछितरूप शब्दआदि विषयोंकरके छर्दि पांचप्रकारकी है और विकृतद्दुआ उदान वायु वात आदि सब दोषों को ऊपरके तरफ फेंकता है ॥ ३० ॥ तिन सब छर्दियों में दोषका उदय बुलबुलेकी समान उत्थान और मुखमें नमकका स्वाद, प्रसेक, अरुची अग्रभागमें प्राप्त होतेहैं और नाभिके पृष्ठभागको पीडित करताहुआ और दोनों पालियोंमें शूलको करताहुआ वायु भोजनको ऊपरके तर्फ फेंकता हैं ॥ ३१ ॥ तिसके अनंतर विच्छिन्न और अल्प २ करके कसैला और झागोंसे संयुक्त शब्दसहित डकारसंयुक्त कृष्ण वर्णवाला और पतला द्रव्य वेगवाला मनुष्य छार्दत करता है ॥ ३२ ॥ और खांसी, मुखका शोष, हृदय, शिर, स्वरमें पीडा ; ग्लानि से समन्वित मनुष्य रहता है और पित्तसे खारके पानी के समान कांतिवाला धूम्रवर्णवाला हरा तथा पीला ॥ ३३ ॥ रक्तसे संयुक्त और खड्डा, कडुआ, गरम, तृषा, मूर्च्छा, संताप दाहवाले द्रव्यको छर्दित करता है और कफसे चिकना और करडा और शीतल और कफसंबंधि तांतोंके छिद्रोंवाला ॥ ३४ ॥ मधुर, सलोना, बहुतसा प्रसक्त रोमांच करनेवाला, मुखपै शोजा, मुखमें मधुरपना, तंद्रा, थुकधुकी खांसीवाला वमन होता है || ३५ || सब मलोंकरके सब लक्षणोंवाली जो छर्दि विकृतविज्ञानीय अध्याय में कही है, तिसको वैद्य त्यागे, और दुर्गंधित अमेध्य, अपवित्र इच्छासे रहित देखना और सुनना आदिकरके || ३६ || तप्तहुये चित्तमें और क्लेशित हुये हृदयमें अप्रियपदार्थ के योगसे उपजी छर्दि होती है और हृदय के रोग पांच प्रकार के कहे हैं ॥
वातादीनेव विमृशेत्कमितृष्णामदौहृदे ॥ ३७ ॥ शूलवेपथुहृल्लासैर्विशेषात्कृमिजां वदेत् ॥ कृमिहृद्रोगलिङ्गैश्च स्मृताः पञ्च तु हृद्गदाः ॥ ३८ ॥
और कृमि, तृष्णा, आम तथा गर्भिणीके दोहदमें वातआदि छर्दियों को तथा योग्य लक्षणोंकरके विचारै ॥ २७ ॥ शूल, कांपनी, थुकधुकी इन्होंकरके विशेषता से कीडोंसे उपजी छर्दिको कहै.
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