________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अष्टाङ्गहृदये
(३७६)
ङ्गमर्दनम् ॥१६॥ कंठोद्धंसः स्वरभ्रंशः पित्तात्पादांसपाणिषु॥ दाहोऽतिसारोऽसृक्छदिर्मुखगन्धो ज्वरो मदः ॥१७॥ कफाद रोचकश्छर्दिः कासो मूर्धाङ्गगौरवम् ॥ प्रसेकः पीनसः श्वासः स्वरसादोऽल्पवह्निता ॥१८॥
और तिन एकादशरूपवाले राजयक्ष्माओंमें कंठका बैठजाना छातीमें पीडा ॥ १५ ॥ जंभाई, अंगोंका टूटना, थुकथुकी,, जठराग्निका शिथिलपना, मुखमें दुर्गधि ऐसे सात उपद्रवोंको जानै और तिस राजयक्ष्मा रोगमें वायुकी अधिकतासे शिर, शूल पशलीमें शूल, कंधे और अंगोंका टूटना ॥ १६ ॥ कंटका अत्यंत नाश और स्वरका नाश उपजतहैं और पित्तकी अधिकतासे पैर, कंधे. हाथमें दाह और अतिसार, रक्तकी छर्दी, मुखमें गंध, ज्वर, मद उपजते हैं ॥१७॥ कफकी अधिकतासे अरुची, छर्दी, खांसी शिर और अंगोंका भारीपन, प्रसेक, पीनस श्वास, स्वरकी शिथिलता, जठराग्निकी मंदता उपजते हैं ॥ १८ ॥
दोषैर्मन्दानलत्वेन सोपलेपैः कफोल्बणैः ॥ स्रोतोमुखेषु रुद्धेषु धातूष्मस्वल्पकेषु च ॥ १९ ॥ विदह्यमानः स्वस्थाने रसस्तांस्तानुपद्रवान्। कुर्य्यादगच्छन्मांसादीनसृक् चोर्ध्वप्रधावति ॥२०॥ पच्यते कोष्ठ एवान्नमन्नपक्कैव चाऽस्य यत् ॥ प्रायोऽस्मान्मलतां यातं नैवालं धातुपुष्टये ॥२१॥ अग्निकी मंदताकरके उपलेपसे संयुक्त कफकी अधिकताबाले दोषोंकरके रुकेहुये स्रोतोंके मुखोंमें और अल्परूप धातुओंकी गरमाईको होजानेसे ॥ १९ ॥ अपनेही स्थानमें विदह्यमानहुआ रसधातु तिन तिन उपद्रवोंको करता है, और मांसआदि धातुओंमें नहीं गमन करताहुआ और वह रक्त ऊपरको फैलाता है ॥ २० ॥ इस वास्ते इस राजयक्ष्मा रोगीका अन्न कोष्ठोंही पकता है पेटकी अग्निकरके और धातुओंकी अग्निसे नहीं इसीवास्ते विशेषतासे मलभावको प्राप्त होजाता है और धातुओंकी पुष्टि के अर्थ समर्थ नहीं है ॥ २१ ॥
रसोप्यस्य न रक्ताय मांसाय कुत एव तु ॥
उपस्तब्धः स शकृता केवलं वर्त्तते क्षयी ॥ २२॥ इस रोगीके रसधातु भी रक्तके अर्थ नहीं हैं तब मांसके अर्थ कैसे होसकैं और यह क्षयरोगी केवल विष्टाकरके अवष्टंभित रहता है ॥ २२॥
लिङ्गेश्वल्पेष्वपि क्षीणं व्याध्यौषधबलाक्षमम् ॥ वर्जयेत्साधयेदेव सर्वेष्वपि ततोऽन्यथा ॥ २३ ॥
For Private and Personal Use Only