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(३७२)
अष्टाङ्गहदयेमनुष्य होजाता है ॥१५॥ ऊर्ध्वश्वाससे लंबा और ऊपरको श्वासको लेता है और नीचेको श्वासको नहीं लेता और कफकरके आच्छादितमुख और स्त्रोतोंवाला और कुपित हुये वायुकरके पीडित ॥ १६॥ और ऊपरको दृष्ठिवाला और सबतर्फको नेत्रोंको फेंकताहुआ और भ्रातरूपकरके देखनेवाला और मर्ममें चोट लगनेकी तरह विलाप करनेवाला और भीतरको प्रविष्ट हुई बानीवाला मनुष्य होजाता है ॥ १७ ॥ ये चिकित्सित किये तमकआदि श्वास साध्य होजाते हैं और प्रकटलक्षणों वाले ये तमक आदि श्वास निश्चय प्राणोंको हरते हैं अर्थात् चिकित्सा न करनेसे असाध्य होजाते हैं श्वासैकहेतुप्राग्रूपसंख्याप्रकृतिसंश्रयाः ॥ १८ ॥ हिध्मा भक्तो. द्भवा क्षुद्रा यमला महतीति च ॥ गम्भीरा च मरुत्तत्र त्वरया युक्तिसेवितैः ॥१९॥ रूक्षतीक्ष्णखरासात्म्यैरन्नपानः प्रपीडितः । करोतिं हिध्मामरुजां मन्दशब्दां क्षवानुगाम् ॥ २०॥ शमं सा
म्यानपानेन या प्रयाति च साऽनजा॥ • और श्वासके समान एक निदान, एक पूर्वरूप, संख्या प्रकृतिके आश्रयसे ॥ १८ ॥ हिचकी होती है, अर्थात् श्वासपूर्वरूप हृदय पार्श्वका शूल हिचकीका कारण है और भक्तोद्भवा, क्षुद्रा, यमला, महती, गंभीरा नामोंकरके हिचकी पांच प्रकारकी है, और तिन हिचकियोंके मध्यमें शीघ्रताकरके अयुक्तसे सेवितकिये ॥ १९॥ रूक्ष, तीक्ष्ण, खरधरे, प्रकृतिके अयोग्य, अन्नपानोंकरके पीडितहुआ वायु पीडासे रहित और मंदशब्दवाली छींकोंके पश्चात् प्राप्त होनेवाली अन्नजा हिचकीको करता है ॥ २० ॥ यह हिचकी प्रकृतिके योग्य अन्नपानकरके शांत होजाती है ।
आयासात्पवनः क्षुद्रः क्षुद्रां हिमां प्रवर्त्तयेत् ॥२१ ॥ जत्रुमूल प्रविसृतामल्पवेगां मृदुं च सा ॥ वृद्धिमायास्यतो याति भुक्तमात्रे च मार्दवम् ॥ २२ ॥ चिरेण यमलैवेगैराहारे या प्रवर्तते ॥ परिणामोन्मुखे वृद्धिं परिणामे च गच्छति ॥ २३ ॥ कम्पयंती शिरोग्रीवामाध्मातस्यातितृष्यतः ॥ प्रलापश्छद्यतीसारनेत्रविप्लुत जृम्भिणः ॥२४॥ यमला वेगिनी हिमा परिणामवती च सा॥
और व्यायामसे स्वल्परूप वायु क्षुद्रा हिचकीको प्रवृत्त करता है ॥ २१ ॥ परंतु हंसलाके मूलसे प्रवृत्त हुई और अल्पबेगोंवाली और कोमल क्षुद्रा हिचकी होती है और परिश्रम करनेवालेके यह हिचकी वृद्धिको प्राप्त होती है और तत्काल भोजन करनेमें यह हिचकी कोमलपनेको प्राप्त होती है ॥२२॥ जो चिरकालकरके आसन्न परिणामवाले भोजनमें दो दो वेगोंकरके प्रवृत्त होती है और परिणाममें प्राप्त होती है ॥ २३ ॥ और अफारावाले और अत्यंत तृषावाले मनुष्यके शिर और ग्रीवाको कँपातीहुई और प्रलाप, छर्दि, अतिसार, नेत्रविप्लुत, जंभाईवाले मनुष्यके उपजती है ॥ २४ ॥ ऐसी यमला हिचकी होती है और इसीको वेगिनी तथा परिणामवती भी कहते हैं ।
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