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( ३७० )
अष्टाङ्गहृदये
खांसीकी वृद्धिकरके और पूर्वोक्त, तिक्त उष्णआदि दोषोंको कोप करनेवाले द्रव्योंकरके और आमातिसार, छर्दि, विष, पाण्डुरोग, ज्वर इन्होंकरके ॥१॥ और धूली, धूमा, वायु, मर्ममें चोटका लगना, अत्यंत शीतल पानी इन्होंकरके श्वास उपजता है और क्षुद्रक, तमक, छिन्न, महान् ऊर्ध्व इन नामोंकरके वह श्वास पांचप्रकारका है ॥ २ ॥ कफोपरुद्ध मनः पवनो विष्वगास्थितः ॥ प्राणोदकान्नवाहीनि दुष्टः स्रोतांसि दूषयन् ॥ ३ ॥ उरःस्थः कुरुते श्वासमामाशय समुद्भवम् ॥ प्राग्रूपं तस्य हृत्पार्श्वशूलं प्राणविलोमता ॥ ४ ॥ आनाहः शंखभेदश्च तत्रायासातिभोजनैः ॥ प्रेरितः प्रेरयेत्क्षुद्रं
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स्वयं संशमनं मरुत् ॥ ५ ॥
कफकरके रुके गमनवाले देहमें चारोंतर्फ व्याप्त होके स्थित होनेवाला और कुपित हुआ प्राण, पानी, अन्नको बहनेवाले स्त्रोतों को दूषित करता हुवा वायु ॥ ३ ॥ छाती में स्थित होके आमाशय से उत्पन्न होनेवाले श्वासको करता है और तिस श्वासरोग के पूर्वरूपको कहते हैं हृदय और परालीम शूल और प्राणोंका विलोमपना ॥ ४ ॥ अफारा, कनपटियों का भेद होता है, तिन पांचप्रकारके श्वासोंमें परिश्रम और अत्यंत भोजन करके कुपितहुआ वायु चिकित्सा के विना आपही शांत होजानेवाले क्षुद्र श्वासको करता है ॥ ५ ॥
प्रतिलोमं शिरा गच्छन्नुदीर्य पवनः कफम् ॥ परिगृह्य शिरोग्रीवमुरः पार्श्वे च पीडयन् ॥ ६ ॥ कासं घुघुरकं मोहमरुचिं पीनसं तृषम् ॥ करोति तीव्रवेगं च श्वासं प्राणोपतापिनम् ॥ ॥ ७ ॥ प्रताम्येत्तस्य वेगेन निष्ठवृतान्ते क्षणं सुखी ॥ कृच्छ्रा च्छयानः श्वसिति निषण्णः स्वास्थ्यमृच्छति ॥८॥ उच्छ्रिताक्षौ ललाटेन स्विद्यते भृशमर्चिमान् ॥ विशुष्कास्यो मुहु:श्वासी कांक्षत्युष्णं सवेपथुः॥ १ ॥ मेघाम्बुशीतप्राग्वातैः श्लेमलैश्च विवर्द्धते ॥ स याप्यस्तमकः साध्यो नवो वा बलिनो भवेत् ॥ १० ॥ ज्वरमूर्च्छायुतः शीतैः शाम्येत्प्रतमकस्तु सः ॥ वायु प्रतिलोमकरके शिराओं में गमन करताहुआ और कफको ऊपरको प्रेरित कर शिर और श्रीवाको चारों से ग्रहण कर छाती और पशलीको पीडितकरताहुआ || ६ || खांसी, घुग्घुरशब्द, मोह, अरुचि, तृषा, पीनस इन्होंको और तीव्रवेगवाला और प्राणोंको दुःखदेनेवाले श्वासको शंकरता है ॥ ७ ॥ तिस श्वासके बेगकरके वह मनुष्य दुःखी होजाता है, और थूकने के अंतमें क्षण
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