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(३६६)
अष्टाङ्गहृदयेपित्तको श्रेष्ठ औषध वमन नहीं है ॥ ११ ॥ और जो सहाय करनेवाला वायु है तिसकी शांतिके अर्थभी वमन श्रेष्ठ नहीं है किंतु कसैलेरूप मधुरपदार्थ हित हैं ॥ १२ ॥
कफमारुतसंसृष्टमसाध्यमभयायनम् ॥ अशक्यप्रातिलोम्यत्वादभावादौषधस्य च॥ १३ ॥न हि संशोधनं किञ्चिदस्त्यस्य प्रतिलोमगम् ॥शोधनं प्रतिलोमं च रक्तपित्ते भिषग्जितम्॥१४॥ कफ और वातसे उपजा उभयगत रक्तपित्त असाध्य होता है, क्योंकि अशक्यरूपी प्रतिलोम 'पनेवाला है और इसके योग्य औषधके अभावसे असाध्य है ॥ १३ ॥ इसी कारणसे तिस रक्तपित्तका प्रतिलोमको प्राप्त होनेवाला संशोधन कछु नहीं है. और जो प्रतिलोमरूप संशोधन है, वह रक्तपित्तमें वैद्योंकरके जीतागया है ॥ १४ ॥
एवमेवोपशमनं सर्वशो नास्य विद्यते ॥ संसृष्टेषु हि दोषेषुसजिच्छमनं हितम् ॥ १५॥ तत्र दोषानुगमनं शिरास्त्र इवलक्षयेत्॥ उपद्रवांश्च विकृतिज्ञानतस्तेषु चाधिकम् ॥१६॥ आशु कारी यतः कासः स एवातःप्रवक्ष्यते ॥ ऐसे सब प्रकारसे इसका उपशमन नहीं है और मिले ये तीन दोषोंमें सब दोषों को शांतकरने वाला औषध हित है ॥ १५॥ तिस रक्तपित्तमें वात, पित्त, कफ इन्होंका अनुबंध नाडिका वेधकी तरह देखना और रक्तपित्तमें उपजे उपद्रवोंको कुशलवैद्य विकृतविज्ञानीय अध्यायसे उपलक्षित करै और तिन उपद्रवोंमें जो प्रधानरूप कासनामवाला अर्थात् खांसी उपद्रव है ॥१६॥ यह रक्त पित्ती मनुष्यको शीघ्र मारता है, इसी कारणसे ग्रंथकार निदान आदि करके कास अर्थात् खांसीका वर्णन करता है ॥
पञ्च कासाः स्मृता वातपित्तश्लेष्मक्षतक्षयैः ॥१७॥क्षयायोपेक्षिताः सर्वे बलिनश्चोत्तरोत्तरम।तेषां भविष्यतां रूपं कण्ठे कंडूररोचकः॥१८॥शकपूर्णाभकण्ठत्वंतत्राधो विहतोऽनिलः॥ ऊर्ध्वं प्रवृत्तःप्राप्योरस्तस्मिन्कण्ठे च संसजन ॥१९॥शिरः स्रोतांसि सम्पूर्य ततोऽङ्गान्युत्क्षिपन्निव ॥ क्षिपन्निवाक्षिणी पृष्ठमुरः पार्श्वे च पीडयन् ॥२०॥प्रवर्त्तते स वक्रेण भिन्नकांस्योपमध्वनिः॥ वात, पित्त, कफ, क्षत, क्षय इन्होंकरके खांसी पांच प्रकारकी कही है ॥ १७ ॥ और सब प्रकारकी खांसी चिकित्साके विना क्षयकी खांसीके समान होजाती है और उत्तरोत्तर क्रमसे
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