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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३६५) दितबैभत्स्य कासः श्वासो भ्रमः क्लमः॥ लोहलोहितमत्स्यामगन्धास्यत्वं स्वरक्षयः॥५॥ रक्तहारिद्रहरितवर्णता नयनादिषु ॥ नीललोहितपीताना वर्णानामविवेचनम् ॥६॥ स्वप्ने . तद्वर्णदर्शित्वं भवत्यस्मिन्भविष्यति॥ऊर्ध्वं नासाक्षिकर्णास्यैमद्रयोनिगुदैरधः ॥७॥ कुपितं रोमकूपैश्च समस्तैस्तत्प्रवर्तते ॥ शिरका भारीपन, अरुचि, शीतलपदार्थोंमें इच्छा, मुखसे धूवांका निकसना,शरीरके भीतर दाह ॥४॥ छर्दि और छर्दित होनेमें दुर्गन्धिता तथा खाँसी श्वास भ्रम, ग्लानि और लोह,रक्त, मछली, कचे गंधसे युक्त मुखका होना और स्वरका क्षय ॥ ५ ॥ और नेत्रआदियोंमें लाल, हरा, पीला वर्णका होजाना और नीला, रक्त, पीले वर्गों का ज्ञान नहीं रहना ॥ ६ ॥ और स्वप्नमें रक्तवर्णके आकार देखना ये सब लक्षण रक्तपित्तके पूर्वरूपके हैं, ऊपरको कुपितहुआ रक्तपित्त नासिका, नेत्र, कान मुख इन्होंके द्वार प्रवृत्त होता है और अधोगत कुपितहुआ रक्तपित्त लिंग, योनि, गुदा इन्हों के द्वारा प्रवृत्त होता है ॥ ७ ॥ नीचे और ऊपर प्राप्त होनेवाला रक्तपित्त सब रोमकूपोंकरके तथा नासिका, नेत्र, कान, मुख, लिंग, योनि,गुदा इन्होंकरके प्रवृत्त होता है ।
ऊद्ध साध्यं कफाद्यस्मात्तद्विरेचनसाधनम् ॥ ८॥ बह्वौषधं च पित्तस्य विरेको हि वरौषधम् ॥ अनुबन्धी कफो यश्च तत्र तस्यापि शुद्धिकृत् ॥ ९॥ कषायाः स्वादवोऽप्यस्य विशुद्ध श्लेष्मणो हिताः॥ किमु तिक्ताः कषाया वा ये निसर्गात्कफापहाः ॥१०॥
और कफसे उपजनेवाला ऊर्ध्वगत रक्तपित्त साध्य है. यह जुलाबकरके साधना योग्य है ॥८॥ पित्तके बहुतसे औषध हैं परंतु पित्तका उत्तम औषध जुलाब है और तिस पित्तका पीछे सहाय करनेवाला जो कफ है, तिसकीभी शुद्धि करनेवाला जुलाब कहा है ।। ९ । शुद्ध होगया है कफ जिसका ऐसे रक्तपित्तके अर्थ कसैलेरूप स्वादु पदार्थ हित हैं और जो स्वभावसे कफको हरनेवाले कसैलेरूप तिक्तपदार्थ हैं ये रक्तपित्तमें अत्यंत हित हैं ॥ १० ॥
अधो याप्यं चलाद्यस्मात्तत्प्रच्छर्दनसाधनम् ॥ अल्पौषधं च पित्तस्य वमनं नवरौषधम्॥११॥अनुबन्धी चलो यश्च शान्तयेपि न तस्य तत्॥कषायाश्च हितास्तस्य मधुरा एव केवलम्॥१२॥ .
अधोगत रक्तपित्त कष्टसाध्य होता है क्योंकि यह वातकी अधिकतासे उपजता है और इस अधोगत रक्तपित्तका वमनही चिकित्सा है और इस रक्तपित्तका स्वल्पही औषध चिकित्सा है क्योंकि
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