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(३५६)
अष्टाङ्गहृदयेविशेषादरुचिर्जाड्यं स्रोतोरोधोऽल्पवेगता ॥ प्रसेको मुखमाधुर्यं हृल्लेपश्वासपीनसाः॥२१॥ हृल्लासछर्दनं कासःस्तम्भ श्वैत्यं त्वगादिषु॥ अङ्गेषुशीतपिटिकास्तन्द्रोदर्दः कफोद्भवे॥२२॥ विशेषसे अरुचि, जडपना, स्त्रोतोंका रुकना ज्वरके वेगकी अल्पता और कफका प्रसेक और मुखमें मधुरपना और हृदयका लेप, श्वास, पीनस ॥ २१ ॥ थुकथुकी; छर्दि, खांसी, स्तंभ और त्वचाआदिमें सफेदपना और अंगोंमें शीतल फुनसियां और तंद्रा और उदर्द रोग अर्थात् शीतपित्त ये सब लक्षण कफवरमें होते हैं ॥ २२ ॥
काले यथास्वं सर्वेषां प्रवृत्तिद्विरेव वा ॥ निदानोक्तानुपशयो विपरीतोपशायिता।यथास्वलिङ्गसंसर्गे ज्वरःसंसर्गजोऽपिच॥२३॥ वात, पित्त, कफ इन्होंका यथायोग्य अर्थात् दिनका प्रथम भाग और वर्षाआदि काल इन्होंमें प्रवृत्ति और प्रवृत्तहुयेकी वृद्धि जाननी और कहे हुये जो कारण तिन्होंकरके नहीं है उपशय जिसमें ऐसे ज्वरमें वही अनुपशय अर्थात् दुःखको देनेवाला कहा है और इस अनुपशयस विपरीत उपशायिता अर्थात् सुखको देनेवाला उपशय होता है, अपने दो लक्षणोंके मिलापसे संसर्गमें उपजा अर्थात् वातपित्तसे और वातकफसे और पित्तकफसे ज्वर उपजाता है ॥ २३॥ शिरोतिमूर्छावमिदाहमोहकण्ठास्यशोषारतिपर्वभेदाः॥
उन्निद्रतातृभ्रमरोमहर्षाज़म्भातिवाक्त्वंच चलात्सपित्तात्॥२४॥ शिरमें शूल, मूर्छा, छर्दि, दाह, मोह, कंठशोष, ग्लानि, मुखशोष, संधियोंका भेद, नींदका नाश,तृशा, भ्रम,रोमहर्ष,जंभाई,अत्यन्त बोलना ये सब लक्षण वातपित्तसे उपजे ज्वरमें होते हैं२४
तापहान्यरुचिपशिरोरुक्पीनसश्वसनकासविबन्धाः॥ शीतजाड्यतिमिरभ्रमतन्द्राःश्लेष्मवातजनितज्वरलिङ्गम् ॥२५॥ गरमाईकी हानि, अरुची, संधि और शिरमें शूल, पीनस, खांसी,श्वास, मूत्र आदिका विबंध, शीतपना, जडपना अंधेरी, भ्रम, तंद्रा ये सब कफवातज्वरके लक्षणहैं ॥ २५ ॥
शीतस्तम्भखेददाहाव्यवस्थास्तृष्णा कासः श्लेष्मापत्तप्रवृत्तिः ॥ मोहस्तन्द्रालिप्ततिक्तास्यता च ज्ञेयं रूपं श्लेष्मपित्तज्वरस्य॥२६॥ शीत, स्तंभ, पसीना, दाह, इन्होंका नियम नहीं होवे और तृषा, खांसी और कफकी तथा पित्तकी प्रवृत्ति होवे और मोह, तंद्रा, मुखमें लेप और तिक्तपना ये सब लक्षण कफपित्तवरके होते हैं ॥२६॥
सर्वजो लक्षणैः सर्वैर्दाहोऽत्र च मुहुर्मुहुः ॥ तद्वच्छीतं महानि
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