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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३५७) द्रा दिवा जागरणं निशि ॥ २७॥सदा वा नैव वा निद्रा महास्वेदोऽति नैव वा॥ गीतनर्तनहास्यादिविकृतेहाप्रवर्तनम् ॥ २८ ॥ साश्रुणी कलुषे रक्ते भुग्ने लुलितपक्ष्मणी ॥ अक्षिणी पिण्डिकापार्श्वमूर्द्धपस्थिरुग्भ्रमः ॥ २९॥ सस्वनौ सरुजौ कर्णौ कण्ठः शूकैरिवाचितः॥ परिदग्धा खरा जिह्वा गुरुः स्त्रस्ताङ्गसन्धिता ॥३०॥रक्तपित्तकफष्ठीवो लोलनं शिरसोऽ तिरुक् ॥ कोष्ठानां श्यावरक्तानां मण्डलानाञ्च दर्शनम् ॥३१॥ हृद्वयथा मलसंसर्गः प्रवृत्तिर्वाल्पशोऽति वा ॥ स्निग्धास्यता बलभ्रंशः स्वरसादः प्रलापता ॥ ३२ ॥ दोषपाकश्चिरात्तन्द्रा प्रततं कण्ठकूजनम् ॥ सन्निपातमाभन्यासं तं ब्रूयाच हृतौजसम् ॥३३॥ दोषे विबद्धे नष्टेऽग्नौ सर्वसम्पूर्णलक्षणः॥ असाध्यः सोऽन्यथा कृच्छो भवेद्वैकल्यदोऽपि वा ॥ ३४॥ तीनों दोषोंके सब लक्षणोंकरके सन्निपातज्वर होता है इसमें बारंबार दाह और शीतलता करता है और दिनमें अत्यन्त नींद और रात्रिमें जागना ।। २७ ।। अथवा दिनमें और रात्रिमें नींदका नहीं आवना और बहुतसे पसीनोंका आवना अथवा पसीनोंका नहीं आना और गाना, नाचना, हँसना इनआदि विकृत चेष्टाकी प्रवृत्ति ॥ २८ ॥ और आंशुओंसे संयुक्त और गढीले और रक्तरूप और कुटिलरूप और चंचलरूप पलकोंकरके संयुक्त नेत्र और पीडी, पशली, शिर, संधि, हड्डीमें शूल और भ्रम ॥ २९ ।। और शब्दसे सहित और शूलसे संयुक्त कान और शूकोंकरके व्याप्तकी तरह कंठ और परिदग्ध हुई और खरधरी और भारी जीभ और अंग तथा संधियोंकी शिथिलता ॥ ३० ॥ और रक्तपित्तका तथा कफका थूकना और शिरका चलन तथा शिरमें शूल और गोल तथा धूम्र और रक्तवर्णवाले मंडलोंका दर्शन ॥ ३१ ॥ और हृदयमें पीडा, मूत्रआदि मलोंका बंधना अथवा मलोंकी अत्यन्त प्रवृत्ति अथवा अल्पप्रवृत्ति और मुखमें चिकनापन और बलका नाश और स्वरकी शिथिलता और प्रलाप अर्थात् बकवाद ।। ३२ ॥ और चिरकालसे दोषोंका पकना और तंद्रा और निरन्तर कंठका बोलना ये सब लक्षण मिलें तिसको सन्निपात कहते हैं और अभिन्यास तथा हृतौजा ये दोनों सन्निपातके पर्याय अर्थात् नाम हैं ॥ ३३ ॥ दोषोंकी वृद्धिमें और अग्निके नष्टपने में सब लक्षणोंवाला सन्निपातज्वर असाध्य कहा है और इससे विपरीत सन्निपातज्वर कष्टसाध्य होता है अथवा विकलपनेको देताहै ॥ ३४ ॥ अन्यश्च सन्निपातोत्थो यत्र पित्तं पृथक्स्थितम् ॥ त्वचि कोष्ठेऽथवा दाहं विदधाति पुरोऽनु वा ॥३५॥ तद्वद्वातकफौ शीतं For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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