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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३५१) व्रणके शो में पित्तको करनेवाला उष्णरूप पिंडी बंधन और हेतुविपरीतार्थकारी अन्न जैसे व्रणके शोजेमें विदाहीरूप अन्न और हेतुविपरीतार्थकारी क्रीडा जैसे छर्दिमें वमनके अर्थ प्रवाहणकर्म और हेतुव्याधिविपरीतार्थकारी औषध जैसे अग्निकरके जले हुयेमें अगरआदिका लेप और विषमें विष
और हेतुव्याधिविपरीतार्थकारी अन्न जैसे मदिराके पानसे उस्थितहुये मदात्ययरोगमें मदको करनेवाली मदिराका पान और हेतु व्याधिविपरीतार्थ कारी क्रीडा जैसे व्यायामसे उपजे मूढ वातमें जलका प्रतरणरूप व्यायामका करना ऐसे जानो ॥ ७ ॥ और इन पूर्वोक्त लक्षणोंवाले उपशयसे विपरीत अनुपशय कहाता है और यही व्याधिका असात्म्याभिसंज्ञित मुनिजनोंने कहा है ।।
यथा दुष्टेन दोषेण यथा चानुविसर्पता ॥८॥ निवृत्तिरामयस्यासौ सम्प्राप्तिातिरागतिः ॥ संख्याविकल्पप्राधान्यबल कालविशेषतः ॥ ९ ॥ सा भिद्यते यथाऽत्रैव वक्ष्यन्तेऽष्टौ ज्वरा इति॥ दोषाणांसमवेतानां विकल्पोऽशांशकल्पना॥१०॥ स्वातन्त्र्यपारतन्त्र्याभ्यां व्याधेःप्राधान्यमादिशेत् ॥ हेत्वादिकात्या॑वयवैर्बलाबलविशेषणम्॥११॥नक्तन्दिनर्तुभुक्तांशै
ाधिकालो यथामलम्॥ जिस प्रकार के दुष्ट हुए और तिसी प्रकारकरके देहके प्रति दौडतेहुये दोषकरके ॥ ८ ॥ जो रोगकी उत्पत्ति है तिसको संप्राप्ति कहते हैं और जाति तथा आगति ये दोनों संप्राप्तिके पर्याय हैं और संख्या, विकल्प, प्राधान्य, बल, काल इन्होंके विशेषसे ॥९॥ वह संप्राप्ति भेदित कीजाती है जैसे यहांही आठ प्रकारके ज्वर कहे जांय तैसे और एक रोगमें संघटितहुये दापोंके एकभांग व दोभाग व तीनभाग इन्हों करके जो कल्पना है तिसको विकल्प कहते हैं ॥ १० ॥ स्वतंत्रता और परतंत्रताकरके व्याधिके प्राधान्यको कहना चाहिये और हेतुआदिके सब अवयवोंकरके व्याधिका बल और अबलकी विशेषता कहना चाहिये ॥ ११ ।। रात्रि, दिन, ऋतु, भुक्त तिन्होंके अवयचोकरके यथायोग्य मलके अनुसार व्याधिके कालको कहना जैसे श्लेष्मावरका रात्रिमुख वा पूर्वाह्नमें यथा वसन्तऋतुमें भोजन करतेही बललाभ होताहै इसी प्रकारसे वात पित्तका बल निरूपणकरना ।।
इति प्रोक्तो निदानार्थः स व्यासेनोपदेक्ष्यते॥१२॥ सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मला।तत्प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधा हितसेवनम्॥१३॥ अहितं त्रिविधो योगस्त्रयाणां प्रागुदाहृतः॥ ऐसे संक्षेपप्रकारकरके निदान कहा है परंतु तिस निदानको विस्तारकरके ग्रंथकार कहेंगे॥१२॥ कुपितहुये वात, पित्त, कफ सब रोगोंके निदान अर्थात् कारण हैं और तिस वातआदि प्रकोपका कारण अनेक प्रकारके अहित पदार्थको सेवना कहा है ॥ १३ ॥ काल अर्थ कर्म इन्होंका हीन मिथ्या अतिमात्र इन लक्षणोंवाला तीन प्रकारका और अहित योग पहिले सूत्रस्थानमें कहा है ॥
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