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शारीरस्थानं भाषाकिासमेतम् । (३३५) और वातव्याधिवाला और मगीरोगवाला और कुष्ठवाला और रक्तपित्तवाला और क्षयवाला ॥ १०१॥ और गुल्मवाला और प्रमेहवाला और इन क्षीणपुरुषोंको अल्प विकारभी उपजै तो । वैद्य वर्जि देव ॥
बलमांसक्षयस्तीवो रोगवृद्धिररोचकः॥ १०२॥ यस्यातुरस्य लक्ष्यन्ते त्रीपक्षान्न स जीवति।वाताऽष्ठीलातिसंवृद्धा तिष्ठन्ती दारुणा हृदि ॥ १०३॥ तृष्णया तु परीतस्य सयो मुष्णाति जीवितम् ॥
और वल तथा मांसका अत्यंत क्षय और रोगकी वृद्धि और अरुची ॥ १०२ ॥ ये सब जिस रोगीके उपजै वह डेढमहीनातक नहीं जीवता है और अत्यंत बढीहुई और हृदयमें दारुणरूप बातस उपनी अष्टाला ॥ १०३ ॥ तृषाकरके युक्त मनुष्यके जीवको तत्काल हरती है ।
शैथिल्यं पिण्डिके वायुनीत्वा नासां च जिह्मताम् ॥ १०४॥ क्षीणस्यायम्य मन्ये वा सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ वायु पीडियोको शिथिलभावको प्राप्तकर और नासिकाको कुटिलभावको प्राप्तकर ॥ १०४ ॥ क्षणि मनुष्यके दोनों कंधोंको विस्तारित कर तत्काल जीवको हरतीहै ।।
नाभीगुदान्तरं गत्वा वंक्षणौ वा समाश्रयन् ॥ १०५॥ गृहीत्वा पायुहृदये क्षीणदेहस्य वा बली ॥ मलान् बस्तिशिरो नाभिं . विवद्धय जनयनुजम् ॥ १०६ ॥ कुर्वन्वंक्षणयोः शूलं तृष्णा भिन्नपुरीषताम् ॥ श्वासं वा जनयन्वायुगृहीत्वा गुदवंक्षणम् . ॥ १०७॥ वितत्य पशुकाग्राणि गृहीत्वोरश्च मारुतः॥ स्तिमितस्यातताक्षस्य सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ १०८ ॥ अथवा नाभी और गुदाके मध्यमें प्राप्त हो और अंडसांधयोंमें आश्रित हुआ वायु जीवनको हरता है ॥१०५॥ अथवा बलवाला वायु गुदा और हृदयको गृहीत कर क्षाण देहवाले मनुष्यके प्राणोंको तत्काल हरता है अथवा वायु मलोंको और बस्तिस्थानका शिर और नाभी इन्होंको रोकि और शूलको करताहुआ तत्काल प्राणोंको हरता है ॥ १०६॥ और अंडकी संधियोंमें शूलको करता हुआ और तपा और विष्ठाकी भिन्नता व श्वास इन्होंको उपजाताहुआ गुदा और अंडसंधिको गृहीत. करताहुआ वायु तत्काल प्राणोंको हरता है ॥ १०७॥ पशलियोंकी हड्डियोंके अग्रभागको विस्तारितकर और छातीको ग्रहण करनेवाला वायु गोलेपनको प्राप्त हुये और विस्ततनेत्रोंवाले मनुष्यके प्राणको तत्काल हरता है ॥ १०८॥
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