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शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(३३१)
विनाही सब लक्षणोंसे संयुक्त विकार उपजै | अथवा सब लक्षणोंवाला विकार शीघ्रही शांत हो जावे वह मनुष्य मरजाता है ॥ ७० ॥
ज्वरो निहन्ति बलवान्गम्भीरो दैर्घरात्रिकः ॥ ७१ ॥ स प्रलापभ्रम श्वासक्षीणं शूनं हतानलम् ॥ अक्षामं सक्तवचनं रक्ताक्षं हृदि शूलिनम् ॥ ७२ ॥ संशुष्ककासः पूर्वाह्ने योऽ पराद्धेऽपि वा भवेत् । बलमासविहीनस्य श्लेष्मकाससमन्वितः ॥ ७३ ॥
और गंभीर तथा दर्घि कालके अनुबन्धी और बलवाले हेतुओंकरके संयुक्त ज्वर, ॥ ७१ ॥ प्रलाप भ्रम, श्वास, करके क्षीण शोजावाला नष्ट अग्निवाला और क्षामपनेसे रहित अर्थात् बलवाला सक्त वचनवाला और रक्त नेत्रोंवाला और हृदयमें शूलवाला मनुष्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ७२ ॥ जो पूर्वाहने सूखी खांसीवाला हो अथवा अपराह्न अर्थात् दुपहरेके पश्चात् सूखी खांसीवाला और कफकी खांसीसे संयुक्त ज्वर हो बल तथा मांसकरके हीन मनुष्यको यह रोग मारते हैं ॥ ७३ ॥ रक्तपित्तं भृशं रक्तं कृष्णमिन्द्रधनुःप्रभम् ॥ ताम्रहारिद्रहरितं रूपं रक्तं प्रदर्शयेत् ॥ ७४ ॥ रोमकूपप्रविसृतं कण्ठास्यंहृदये सृजत् ॥ वाससो रञ्जनं पूति वेगवच्चाति भूरिच ॥ ७५ ॥ वृद्धं पाण्डुज्वरच्छर्दि का सशोफातिसारिणम् ॥ . कासश्वास ज्वरच्छर्दितृष्णातीसारशोफिनम् ॥ ७६ ॥ अन्तरक और अत्यन्त कृष्ण और इन्द्रके धनुष्यके समान कांतिवाला अथवा दृश्यमान रक्तरूपको दिखाताहुआ रक्तपित्त मनुष्यको मारता है ॥ ७४ ॥| और सब रोमकूपोंसे उपजा हुआ और कण्ठ, मुख, हृदय इन्होंमें संश्लिष्ट हुआ और वस्त्रको नहीं रंगनेवाला दुर्गंध से संयुक्त और बेगवाला और अत्यन्त ज्यादा || ७५ || और बढा हुआ रक्तपित्त पांडु, ज्वर, छर्दि, खांसी, शोजा, अतिसार इन उपद्रवोंवाले मनुष्यको मारता है और ज्वर, छर्दि, तृषा, अतिसार, शोजा, इन उपद्रवोंवाले मनुष्यको खांसी और श्वास मारते हैं ॥ ७६ ॥
यक्ष्मा पार्श्वरुजानाहरक्तच्छसतापिनम् ॥ छर्दिवेगवती मूत्रशकृद्गन्धिः सचन्द्रिका ॥ ७७ ॥ सास्रविट्पूयरुकासश्वासवत्यनुषङ्गिणी ॥ तृष्णान्यरोगक्षपितं वहिजिह्वं विचेतनम् ॥ ७८ ॥ मदात्ययोऽतिशीता क्षीणं तैलप्रभाननम् ॥ अशांसि पाणिपन्नाभिगुदमुष्कास्यशोफिनम् ॥
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