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(३०४)
अष्टाङ्गहृदयेआपसमें उपसंस्तंभसे धातुओंके स्नेहकी परंपरा है कितनेक वैद्य कहते हैं एक दिन रात्रिकरके अन्न वीर्यभावको प्राप्त होता है क्योंकि पाकक्रम आदियों करके और कितनेक वैद्य कहते हैं. पाकक्रम आदिकरके छः दिनोंमें अन्न वीर्यभावको प्राप्त होता है ॥ ६ ॥
मासेन याति शुक्रत्वमन्नं पाकक्रमादिभिः॥
सन्ततं भोज्यधातूनां परिवृत्तिस्तु चक्रवत् ॥ ६६ ॥ और कितनेक वैध कहते हैं पाकक्रमआदिकरके अन्न एक महीनेमें वीर्य्यभावको प्राप्त होता है और भोज्य धातुओंकी परिवृत्ति अर्थात् भ्रमणा निरंतर चक्रकी तरह है ॥ ६६ ॥
वृष्यादीनि प्रभावेण सद्यः शुक्रादि कुर्वते ॥
प्रायः करोत्यहोरात्रात्कर्मान्यदपि भेषजम् ॥ ६७ ॥ दूध, मांसरस, मुलहटी, उडद, पेठा, हंसआदि पक्षीका अंडा आदि वृष्य पदार्थ प्रभावकरके तत्काल वीर्य और बलको करते हैं और चूर्ण और गोलीआदि औषधीभी विशेषतासे दिनरात्रिों अपने कर्मोको करती है ॥ ६७ ॥
व्यानेन रसधातुहि विक्षेपोचितकर्मणा ॥
युगपत्सर्वतोऽजस्त्रं देहे विक्षिप्यते सदा॥६८॥ प्रेरण करनेके उचितकर्मवाले व्यानवायुकरके रसधातु एकहीबार अतिशयसे देहमें चारोंतर्फको सब कालमें प्रेरित कियाजाता है । ६८॥
क्षिप्यमाणः स्वबैगुण्याद्रसः सज्जति यत्र सः॥
तस्मिन्विकारं कुरुते खे वर्षमिव तोयदः ॥६९॥ अपनी विगुणतासे जहां प्रेर्यमाण हुआ वह रस संसक्त होता है तिसी प्रदेशमें विकारको करता है जैसे आकाशमें स्थित हुआ बद्दल वर्षाको ॥ ६९ ॥
दोषाणामपि चैवं स्यादेकदेशप्रकोपनम् ॥
अन्नभौतिकधात्वग्निकर्मेति परिभाषितम् ॥ ७ ॥ ऐसेही दोषोंकाभी एकदेशमें प्रकोप होता है ऐसे अन्न भौतिक धातु अग्नि इन्होंके कर्म प्रकाशित किये ॥ ७० ॥
अन्नस्य पक्ता सर्वेषां पक्तृणामधिको मतः॥
तन्मूलास्ते हि तद्वृद्धिक्षयवृद्धिक्षयात्मकाः॥७१॥ सब पकानेवालोंके मध्यमें अन्नको पकानेवाली जो पेटकी अग्नि है वह अधिक मानी है, इसवास्ते भूत अग्निआदिकोंकी वृद्धी क्षय अर्थात उपचय अपचय वृद्धि क्षयरूप स्वभाववाले तिन पंचमहाभूतोंकी यह पेटकी अग्नि मूल है ॥ ७१ ॥
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