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(३०२)
अष्टाङ्गहदये
भुक्तमामाशये रुद्धा सा विपाच्य नयत्यधः॥
बलवत्यबला त्वन्नमाममेव विमुञ्चति॥५२॥ भोजन कियेको आमाशयमें रोककर उसे पकाके नीचेको प्राप्त करती है और बलवाली ग्रहणी भोजनको पकाके नीचेको लेजाती है, और बलसे रहित ग्रहणी कच्चे आमको निकालती है ॥१२॥
ग्रहण्यां वलमग्निहि स चापि ग्रहणीबलः॥
दूषितेन्नावतो दुष्टा ग्रहणी रोगकारिणी ॥ ५३॥ ग्रहणीके बलका हेतु अग्नि है और अग्निका बल ग्रहणी है, दूषित हुई अग्निमें दुष्ट हुई ग्रहणी रोगको करती है ॥ ५३॥
। यदन्नं देहधात्वोजोबलवर्णादिपोषणम् ॥
तत्राग्निर्हेतुराहारान्नह्यपक्काद्रसादयः ॥५४॥ जो अन्न, देह, धातु, बल, वर्ण आदिको पोषता, है, तहां अग्निही कारण है क्योंकि नहीं पके हुये आहारसे रसआदि नहीं उपजतेहैं ॥ ५४ ॥
अन्नं कालेऽभ्यवहृतं कोष्ठं प्राणानिलाहृतम् ॥
द्रवैर्विभिन्नसङ्घातं नीतं स्नेहेन मार्दवम् ॥५५॥ कालमें भोजन किया अन्न प्राणवायुकरके प्रेरित हुआ द्रवपदार्थोकरके भेदित समूहवाला, स्नेह करके कोमल भावको प्राप्त हुआ वह अन्न कोष्ठमें प्राप्त होता है ॥ ५५ ॥
सन्धुक्षितःसमानेन पचत्यामाशयस्थितम् ॥
औदयोऽग्निर्यथा वाह्यः स्थालीस्थं तोयतण्डुलम् ॥ ५६ ॥ पछि आमाशयमें स्थितहुये तिस अन्नको समानवायुकरके दीपित हुआ वह पेटका अग्नि पकाता है, जैसे लौकिक अग्नि टोकनीमें स्थित हुये और पानीसे संयुक्त चावलोंको पकाती है ॥ ५६ ॥
आदौ षड्रसमप्यन्नं मधुरीभूतमीरयेत् ॥
फेनीभूतं कर्फ यातं विदाहादम्लतां ततः ॥५७॥ आदिमें छःरसवाला अन्नभी खायाहुआ मधुररससे संपन्न हुआ फेनीभूत कफको प्रेरित करता है पीछे मध्यम अवस्थामें खायाहुआ छ:रसोंवाला अन्न विदाहसे अम्लताको प्राप्त होता हुआ॥१७॥
पित्तमामाशयात्कुर्याच्च्यवमानं च्युतं पुनः ॥
अग्निना शोषितं पकं पिण्डितं कटुमारुतम् ॥ ५८ ॥ च्यवमान पित्तको आमाशयसे करता है और च्युत होते आमाशयसे पक्वाशयमें प्राप्त हुआ और पेटकी अग्निसे पक्क तथा शोषित तथा पिंडित तथा कडुआ होके तीसरी · अवस्थामें चायुको करता है ॥ ५८ ॥
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