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शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् (३०१) जैसे कमलको नालीके सूक्ष्म छिद्र दूरतक फैलेहुये होते हैं तैसे संपूर्ण शरीरमें स्रोतोंके द्वार फैलेहुये हैं जिन्होंकरके रस वृद्धिको प्राप्त होता है ।। ४६ ॥
व्यधे तु स्रोतसां मोहकम्पाध्मानवमिज्वराः॥
प्रलापशूलविण्मूत्ररोधो मरणमेव वा ॥ ४७ ॥ स्रोतोंके ताडन ( वेधन ) होनमें, मोह, कंप, अफारा, छर्दी, ज्वर, प्रलाप, शूल, विष्ठामूत्रका रुकना ये उपजते हैं अथवा मृत्यु होजाता है ॥ ४७ ।।
वामपार्थाश्रितं नाभेः किंचित्सूर्यस्य मंडलम् ॥ तन्मध्ये मंडलं सौम्यं तन्मध्येऽग्निर्व्यवस्थितः ॥१॥ जरायुमात्रप्रच्छन्नःकाचकोशस्थदीपवत्॥
अयं सार्द्धश्लोकः क्षेपकः ॥ नाभीके वाम पार्श्वमें किंचित् सूर्यका मंडलहै उसके मध्यमें चन्द्रमा और उसके मध्यमें अग्निका मंडलहै वह कांचकोशके भीतर दीपककी तरह जरायुजसे ढका रहताहै ॥ १ ॥
स्रोतोविद्धमतो वैद्यः प्रत्याख्याय प्रसाधयेत्॥
उद्धत्य शल्यं यत्नेन सद्यःक्षतविधानतः ॥४८॥ ___ स्रोतमें ताडित वेधित हुये मनुष्यको चतुर वैद्य अत्यन्त असाध्य जानके चिकित्सा करै तब. यत्नकरके शल्यको निकास पीछे तत्काल क्षत हुयेके विधानसे चिकित्सा करै ॥ ४८ ॥
अन्नस्य पक्ता पित्तं तु पाचकाख्यं पुरेरितम् ॥ .
दोषधातुमलादीनामूष्मेत्यात्रेयशासनम् ॥ ४९॥ अन्नको पकानेवाला पाचकनामसे विख्यात पित्त है यह धन्वंतारका मत है और दोष धातु मल आदि संबन्धि जो गर्माई है वह अन्नको पकाती है यह आत्रेयमुनिका मत है ॥ ४९ ॥
तदधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणाद्रहणी मता ॥
सैवधन्वन्तरिमते कला पित्तधराह्वया॥५०॥ तिस पेटमें रहनेवाली आग्निके अधिष्ठान अर्थात् स्थान है वह अन्नके ग्रहणसे ग्रहणी मानी है और वही धन्वन्तारके मतमें पित्तधरा नामवाली कला मानी है ॥ ५० ॥
आयुरारोग्यवीयॊजोभूतधात्वग्निपुष्टये ॥
स्थिता पक्काशयद्वारि भुक्तमार्गाऽर्गलेव सा ॥ ५१॥ आयु, आरोग्य, वीर्य, पराक्रम, पंचमहाभूत, धातु, अग्नि इन्होंकी पुष्टि के अर्थ वह ग्रहणी पक्काशयके द्वारमै स्थित है जैसे कपाटोंके रोकनेको मूसल ॥ ११ ॥
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