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अष्टाङ्गहृदयेकरती हैं दो वर्च और निरसन' स्थूल आंतमें बंधी हैं इस प्रकारसे बारह हैं शेष आठ धमनी तिरछी पसीनेको बढाती हैं तिझै चलनेवाली चार नाडियें बहुत भेदको प्राप्त होती हैं ॥ ३९॥
ताभिश्चोर्द्धमधस्तिर्यग्देहोऽयमनुगृह्यते ॥
स्रोतांसि नासिके कर्णी नेत्रे पाय्वास्यमेहनम् ॥४०॥ तिन धमनी नाडियोंकरके नीचे ऊंचे तिरछे यह देह अनुगृहीत होरहा है, और दो नासिका, दो कान, दो नेत्र, गुदा, मुख, लिंग पुरुषके शरीरमें नव छिद्र हैं ॥ ४०॥
स्तनौ रक्तपथश्चेति नारीणामधिकं त्रयम् ॥
जीवितायतनान्यन्तःस्रोतांस्याहुस्त्रयोदश ॥४१॥ और स्त्रियोंके शरीरमें दो चूंची और योनिमें रक्त निकसनेका मार्ग ऐसे तीन छिद्र अधिक हैं . ऐसे बारह हुये हैं और कितनेक वैद्य विशेषकरके जीवको स्थित होनेके योग्य तेरह छिद्रको शरीरके भीतर कहते हैं ॥४१॥
प्राणधातुमलाम्भोऽन्नवाहीन्यहितसेवनात् ॥
तानि दुष्टानि रोगाय विशुद्धानि सुखाय च ॥४२॥ ये प्राण, धातु, मल, जल, अन्न इन्होंको बहनेवाले हैं, सो अपथ्यके सेवनेसे दुष्ट हुये ये छिद्र 'रोगको उपजाते हैं और शुद्ध हुये सुखको उपजातेहैं ॥ ४२ ॥
स्वधातुसमवर्णानि वृत्तस्थूलान्यणूनि च ॥
स्रोतांसि दीर्घाण्याकृत्या प्रतानसदृशानि च ॥४३॥ अपने धातुके समानवर्णवाले गोल स्थूल और सूक्ष्म और आकृतिकरके लंबे और पत्तेके प्रतानके सदृश स्त्रोत कहे हैं ॥ ४३ ॥
आहारश्च विहारश्च यः स्यादोषगुणैः समः ॥
धातुभिर्विगुणो यश्च स्रोतसां स प्रदूषकः॥४४॥ जो आहार दोष और गुणोंके समान हो वह स्त्रोतोंको दूषित करता है और जो विहार धातुओकरके विरुद्धगुणवाला हो वहभी स्रोतोंको दूषित करता है ॥ ४४ ॥
अतिप्रवृतिः संगो वा शिराणां ग्रन्थयोऽपि वा ॥
विमार्गतो वा गमनं स्रोतसां दुष्टिलक्षणम् ॥४५॥ __ मूत्रको वहनेवाले स्रोतोंकी अतिप्रवृत्ति अथवा अप्रवृत्ति और विष्ठाको वहनेवाले स्त्रोतोंकी अतिप्रवृत्ति अथवा अप्रवृत्ति अथवा नाडियोंका कुटिलपना अथवा अपने मार्गको त्यागकर अन्यमार्गमें गमन करना यह स्रोतोंकी दुष्टताका लक्षण है ॥ ४५ ॥
बिसानामिव सूक्ष्माणि दूरं प्रविसृतानि च ॥ द्वाराणि स्रोतसां देहे रसो यैरुपचीयते ॥ ४६ ॥
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