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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । ( २८९ ) योनिके आच्छादित रहने और योनिका भ्रंश अर्थात् अपने स्थानसे चलायमान होने से मक्कलरोग और श्वासपीडित दुर्गंध से संयुक्त डकारोंवाली और शीतल अंगों से युक्त मूढगर्भवाली स्त्रीको त्यागे ॥ ३८ ॥ अथापतन्तीमपरां पातयेत्पूर्ववद्भिषक् ॥ एवं निर्हृतशल्यां तु सिञ्चेदुष्णेन वारिणा ॥ ३९॥ फिर जेर न निकले तो पूर्वोक्त योगोंके द्वारा पातनकी विधिसे निकाले और शल्य निकाली हुई स्त्रीको गर्म पानी से सेचित करै ॥ ३९ ॥ दद्यादभ्यक्तदेहायै योनौ स्नेहपिचुं ततः ॥ योनिर्मृदुर्भवेत्तेन शूलं चास्याः प्रशाम्यति ॥ ४० ॥ पीछे अभ्यक्तशरीर वाली स्त्रीकी योनिमें स्नेहसे भीजे हुये रुई के फोहेको स्थापित करे तिसकरके कोमलरूप योनि होजाती है और योनिका शूल शांत होता है ॥ ४० ॥ दीप्यकातिविषारास्नाहिङ्ग्लापञ्चकोलकान् ॥ चूर्ण स्नेहेन कल्कं वा काथं वा पाययेत्ततः ॥ ४१ ॥ अजवायन, अतीस, रायशण, हींग, इलायची, पीपल, पीपलामूल, चन्य, चीता, सूंठ के चूर्णको व कल्कको व क्वाथको स्नेहसे संयुक्तकर पान करावै ॥ ४१ ॥ कटुकातिविषा पाठाशाकत्वग्धिङ्गुतेजिनीः ॥ तद्वच्च दोषस्यन्दार्थं वेदनोपशमाय च ॥ ४२ ॥ पीछे कुटकी, अतीस, पाठा; खरच्छदशाक, दालचीनी, हींग तेजोवती इन्होंके काथको दोषों के झिरनेके अर्थ और पीडाकी शांतिके अर्थ पान करावे ॥ ४२ ॥ त्रिरात्रमेवं सप्ताहं स्नेहमेव ततः पिबेत् ॥ सायं पिबेदरिष्टं वा तथा सुकृतमासवम् ॥ ४३ ॥ ऐसे तीन रात्रितक पान कराके पीछे सात दिनोंतक स्नेहका पान करावे और सायंकाल में अरिष्टको तथा सुंदर किये आसवको पीवै ॥ ४३ ॥ शिरीषककुभक्काथपिचून्योनौ विनिक्षिपेत् ॥ उपद्रवाश्च येऽन्ये स्युस्तान्यथास्वमुपाचरेत् ॥ ४४ ॥ शिरस और अर्जुनवृक्ष अर्थात् कौहवृक्षकी छालंके काथसे भिगोयेहुये रूईके फोहों को योनिमें स्थापित करे और जो जो उपद्रव उपजैं तिन्होंको यथायोग्य चिकित्सित करै ॥ ४४ ॥ पयो वातहरैः सिद्धं दशाहं भोजने हितम् ॥ रसो दशाहं च परं लघुपथ्याल्प भोजना ॥ ४५ ॥ १९ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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