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(२८८) .. अष्टाङ्गहृदये
कक्षोरस्तालुचिबुके प्रदेशेऽन्यतमे ततः॥
समालम्ब्य दृढं कर्षेत्कुशलो गर्भशकुना ॥ ३२ ॥ काख, छाती, तालुआ, ठोडी इन्होंमेंसे एक कोईसे प्रदेशमें तिस गर्भको दृढरूप ग्रहणकर चतुर वैद्य गर्भशंकुशस्त्रकरके निकासै ॥ ३२ ॥
अभिन्नशिरसं त्वक्षिकूटयोर्गण्डयोरपि ॥ बाहुं छित्त्वांससक्तस्य वाताध्मातोदरस्य तु ॥३३॥ और नहीं कटेशिरवाले गर्भको नेत्रकूट और कपोलके प्रदेशमें ग्रहणकर गर्भशंकुशस्त्रकरके निकासै और कंधोंकरके अडेहुये गर्भको बाहुको काटकर निकासै और वायुकरके पूरित उदरवाले गर्भको ॥ ३३॥
विदार्य कोष्ठमन्त्राणि बहिर्वा संनिरस्य च ॥
कटीसक्तस्य तद्वच्च तत्कपालानि दारयेत् ॥ ३४ ॥ कोष्ठको काटके और आंतोंको बाहिर निकास पीछे गर्भको बँचै और कटीकरके अडे हुये गर्भमें कोष्ठको विदारित कर और आंतोंको बाहिर निकास और कटीके कपालोंको खंडित कर पीछे गर्भको बैचै ॥ ३४ ॥
यद्यद्वायुवशादंगं सज्जेद्गर्भस्य खण्डशः॥
तत्तच्छित्वा हरेत्सम्यग्रक्षेन्नारी च यत्नतः॥३५॥ जो जो अंग वायुके वशसे मूढगर्भका योनिमें अडजावे तिस तिस अंगके सूक्ष्मतरहसे छेदित कर गर्भको निकासै परंतु यत्नसे नारीकी रक्षा करै ॥ ३५ ॥
गर्भस्य हि गतिं चित्रां करोति विगुणोऽनिलः ॥
तत्रानल्पमतिस्तस्मादवस्थापेक्षमाचरेत् ॥३६ ॥ । कुपितहुआ वायु गर्भकी चित्ररूप गतिको करता है तहां बुद्धिमान् वैद्य अवस्थाके अनुसार कर्मको करै अर्थात् अनुक्तकर्मकोभी करै ॥ ३६ ॥
छिन्द्याद्गर्भ न जीवन्तं मातरं स हि मारयेत् ॥
सहात्मना न चोपेक्ष्यः क्षणमप्यस्तजीवितः॥३७ ॥ जीवतेहुये गर्भको छेदित नहीं करै क्योंकि वह अपनहीं संग माताको मार देता है और जीवसे रहित गर्भको माताके पेटमें क्षणमात्रभी नहीं रहनेदे ॥ ३७॥
योनिसंवरणभ्रंशमकल्लश्वासपीडिताम् ॥ पूत्युद्गारां हिमांगी च मूढगर्भी परित्यजेत् ॥ ३८॥
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