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( २८२ )
अष्टाङ्गहृदये
सूतिका क्षुद्रती तैलाघृताद्वा महतीं पिबेत् ॥ पञ्चकोलकिनीं मात्रामनुचोष्णं गुडोदकम् ॥ ९६ ॥
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क्षुधावाली सूतिका स्त्री पीपल, पीपलामूल, चवक, चीता, सूंठ इन्होंसे संयुक्त तेल अथवा वृतसे मिलीहुई बडीमात्राको पीवै जो आठपहरोंकरके जीर्ण होवै तिसको बडीमात्रा कहते हैं. पीछे गरम किये गुडके सर्वतका अनुपान करै ॥ ९६ ॥
वातघ्नौषधतोयं वा तथा वायुर्न कुप्यति ॥ विशुद्धयति च दुष्टात्रं द्वित्रिरात्रमयं क्रमः ९७ ॥
अथवा वातनाशक औषधोंके काथका अनुपानं करै ऐसे करनेसे वायु कुपित नहीं होता है और दुष्टरक्त शुद्धिको प्राप्त होता है; यह क्रम दो रात्री व तीन रात्री यथायोग्य करना योग्य है ॥९७॥ स्नेहायोग्या तु निःस्नेहममुमेव विधिं भजेत् ॥ पीतवत्याश्च जठरं यमकाक्तं विवेष्टयेत् ॥ ९८ ॥
स्नेहपानके अयोग्य स्त्री स्नेहकरके रहित इसविधिको सवै और पानको करनेवाली स्त्रीके पेटको तिल और घृतकी मालिशकर के वस्त्र से वेष्टित करना ॥ ९८ ॥
जीर्णे स्नाता पिबेत्पेयां पूर्वोक्तौषधसाधिताम् ॥ त्र्यहादूर्ध्वं विदार्यादिवर्गक्काथेन साधिता ॥ ९९ ॥
पूर्वोक्त पानको जीर्ण होनेपर स्नान करीहुई वह स्त्री पीपल पीपलामूल, चवक, चीता, सूंठ इन्होंसे साधितकरी पेयाको पीवै तीन दिनके उपरांत विदार्यादिगणके औषधोंके काथकरके साधितकी हुई पेयाको पीवै ॥ ९९ ॥
हिता यवागूः स्नेहाढ्या सात्म्यातः पयसाऽथवा ॥ सप्तरात्रात्परं चास्यै क्रमशो बृंहणं हितम् ॥ १०० ॥
अथवा प्रकृतिके अनुसार दूध करके साधित और घृतसे मिश्रित यवागूको पीवै और सात रात्रीसे उपरांत बृंहणसंज्ञक पदार्थ हित है ॥ १०० ॥
द्वादशाहेऽनतिक्रान्ते पिशितं नोपयोजयेत् ॥
यत्नेनोपचरेत्सूतां दुःसाध्या हि तदामयाः ॥ १०१ ॥
और बारहदिनसे पहिले इस सूतिकाके अर्थ मांसको नहीं देवे और सूतिका स्त्रीको यत्न करके उपचारित करै क्योंकि सूतिकाके उपजे रोग दुःसाध्य होते हैं ॥ १०१ ॥ गर्भवृद्धिप्रसवरुक् क्लेदास्त्रस्रुतिपीडनैः ॥ एवञ्च मासाद्यर्धान्मुक्ताहारादियन्त्रणा ॥ गतसूताभिधाना स्यात्पुनरार्त्तवदर्शनात् ॥ १०२ ॥
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