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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२५९)
इन्होंमें और डरपोक, गर्भिणी, रजस्वला, वेग और उदावर्तसे वायु योनिको प्रपीडित करें तब झागोसहित रजनिकसता है ऐसे रोगवाली इन स्त्रियोंमें, और अजीर्ण भोजन नहीं पचाहो तब औरं बालक, वृद्ध, धमनी, संधि, मर्म, इन्होंमें ॥ ६ ॥ तरुणास्थिशिरास्नायुसेवनीगलनाभिषु ॥
देशेऽल्पमासे वृषणमे स्रोतो नखान्तरे ॥ ७ ॥
कोमल, हड्डी, नाडी, नस, सीमन, गल, नाभी, अल्पमांसवाला अंगदेश, अंडकोश, लिंग, स्त्रोत, नखके भीतर में ॥ ७ ॥
रोगादृतेऽक्ष्णोश्च शीतवर्षोष्णदुर्दिने ॥
कालमुष्ककशम्याककदलीपारिभद्रकान् ॥ ८॥
रोगके विना नेत्रों में शांत, वर्षा, गर्मी और अवरके दुर्दिनमें इन सबों में पान और लेपन इन दो भेदोंकरके दो प्रकारवाले खारको प्रयुक्त नहीं करै, और मोखावृक्ष, अमलतास, केला, पारिभद्र ॥ ८ ॥
अश्वकर्णमहावृक्ष पलाशास्फोतवृक्षकान् ॥
इन्द्रवृक्षार्कपूतीकनक्तमालाश्वमारकान् ॥ ९ ॥
कुशिकवृक्ष, थोहर, केसू, गिरिकर्णिका, नंदिवृक्ष, कूडा, आक, पूतिकांजुआ, करंजुआ, कनेर ॥ ९ ॥
काकजङ्घामपामार्गमग्निमन्थाग्नितिल्वकान् ॥
सार्द्रान्समूलशाखादीन्खण्डशः परिकल्पितान् ॥ १० ॥
काकजंघा, उंगा, अरनी, चीसा, श्वेतलोध वृक्षोंके गीले जड और शाखा आदि से संयुक्त लेकर टुकडे बनावै ॥ १० ॥
कोशातकीश्चतस्रश्च शकनालं यवस्य च ॥
निवाते निचयीकृत्य पृथक्तानि शिलातले ॥ ११ ॥
और चार प्रकारकी शोरी और जवोंके नालआदिपदार्थ इन सबोंको वातसे रहितस्थानमें इकट्ठेकर अलग अलग पत्थरपै ॥ ११ ॥
प्रक्षिप्य मुष्ककचये सुधाश्मानि च दीपयेत् ॥ ततस्तिलानां कुन्तालैर्दद्धाऽग्नौ विगते पृथक् ॥
१२ ॥
प्रक्षेपित करै पीछे मोखाआदिके संचयमें चूनाके कंकरोंको गेर अग्निसे दीपित करें पीछे तिलोंके कुंतालोंकरके दग्धकरे जब अग्नि बुझजावे तब ॥ १२ ॥
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