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(२५८)
अष्टाङ्गहृदयेत्रिंशोऽध्यायः।
अथातः क्षाराग्निकर्मविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर क्षराग्निकर्मविधिनामक अध्यायको व्याख्यान करेंगे ।
सर्वशस्त्रानुशस्त्राणां क्षारः श्रेष्ठो बहूनि यत् ॥
छेद्यभेद्यादिकर्माणि कुरुते विषमेष्वपि ॥१॥ सबप्रकार शस्त्र और अनुशस्त्रों के मध्यमें खार श्रेष्ठहै क्योंकि विषमस्थानों मेंभी यह खार छेद्य । भेद्य आदिकोको करता है ॥ १ ॥
दुःखावचार्यशस्त्रेषु तेन सिद्धिमयात्सु च ॥
अतिकृच्छ्रेषु रोगेषु यच्च पानेऽपि युज्यते ॥२॥ और दुःखकरके अवचारित शस्त्रवाले व्रणोंमें और बहुत प्रकारसे प्रकोपवाले व्रणों में और अतिकष्टसाध्य रोगोंमें और पीनेमें भी यह खार युक्त किया जाता है ॥ २ ॥
स पेयोऽर्थोऽग्निसादाश्मगुल्मोदरगरादिषु॥
योज्यः साक्षान्मपश्वित्रबाह्यार्शःकुष्ठसुप्तिषु ॥ ३॥ बवासीर मंदाग्नि पथरी गुल्म उदररोग आदियोंमें ग्वार पीना योग्य है और मष ( मसा ) श्वित्र कुष्ठ बाह्यगत बवासीर कुष्ठ सुप्तिवात ॥ ३ ॥
भगन्दराबुदग्रन्थिदुष्टनाडीव्रणादिषु ॥
न तूभयोऽपि योक्तव्यः पित्ते रक्त बलेऽबले॥४॥ भगंदर अर्बुद ग्रंथि दुष्टनाडीव्रण इन्होंमें लेखनकों के द्वारा खार ऊपर युक्त करना योग्य है और पित्तो रक्तके बलमें निर्बल मनुष्यके ॥ ४ ॥
ज्वरेऽतिसारे हृन्मूलरोगे पाण्ड्डामयेऽरुचौ॥
तिमिरे कृतसंशुद्धौ श्वयथौ सर्वगात्रगे॥५॥ तथा ज्वर, अतिसार, हृद्रोग, शिरोरोग, पांडुरोग, अरोचक, तिमिर इन्होंमें वमन विरेचनको लियेहुये मनुष्यके अर्थ सब गात्रमें प्राप्त हुआ शोजा ॥ ५ ॥
भीरुगर्भिण्यतुमती प्रोवृत्तफलयोनिषु॥ अजीर्णेऽन्ने शिशौ वृद्धे धमनीसन्धिमर्मसु ॥६॥
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