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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२५७) तब भक्षित करते हुये वे कीडे शूल शोजा रक्तका झिराना इन्होंको करते हैं, इनमें धोने पूरण करनेमें सुरसादिगणके औषधोंको प्रयुक्त करना ।। ७५ ॥
सप्तपर्णकरार्कनिम्बराजादनत्वचः ॥
गोमूत्रकल्कितो लेपः सेकः क्षाराम्बुना हितः॥७६ ॥ शातला करंजुआ आक नींब चिरोंजीकी छालको गोमूत्रमें पीस कल्कबना तिसका लेप करै और खारसंयुक्त पानीकरके सेचन करना हित है ॥ ७६ ॥
प्रच्छाद्य मांसपेश्या वा व्रणं तानाशु निर्हरेत् ॥
न चैनं त्वरमाणोऽन्तः सदोषमुपरोहयेत् ॥७७॥ अथवा मांसको पेशीकरके व्रणको आच्छादित कर पीछे तिन कीडोंको शीघही निकासै और भीतरके दोषवाले व्रणको शीघ्रकारी वैद्य अंकुरित न करै ।। ७७ ॥
सोऽल्पे नाप्यपचारेण भूयो विकुरुते यतः ॥
रूढेऽप्यजीर्णव्यायामव्यवायादीन्विवर्जयेत् ॥ ७८ ॥ क्योंकि यह अल्प अपथ्य करकेभी फिर विकारको प्राप्त होता है और अंकुरित हुये व्रणमें भी अजीर्ण व्यायाम मैथुन आदिको वर्जिदेवै ॥ ७८ ॥
हर्ष क्रोधं भयं वापि यावदास्थैर्यसम्भवात् ॥
आदरेणानुवयोऽयं मासान् षट् सप्त वा विधिः ॥७९॥ और आनंद क्रोध भयकोभी जबतक स्थिरताका संभव हो तबतक त्यागे, आदरकरके छः महीने व सात महीनेतक यह विधि वर्तनी योग्य है ।। ७९ ॥
उत्पद्यमानासु च तासु तासु वार्तासु दोषादिवलानुसारी॥ तैस्तैरुपायैः प्रयतश्चिकित्सेदालोचयन्विस्तरमुत्तरोक्तम् ॥ ८॥ उत्पद्यमान हुई तिन तिन अवस्थोंमें दोष आदिके बलके अनुसार वर्तनेवाला वैद्य तिन तिन उपायोंकरके सावधान हुआ और उत्तरतंत्रमें कहीहुई विस्तारपूर्वक व्रणभंगकी विधिको देखता हुआ सब कालमें व्रणकी चिकित्सा करे ॥ ८ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
सूत्रस्थाने एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९॥
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