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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२५६) अष्टाङ्गहृदये-- उत्थानशयनाद्यासु सर्वेहासु न पीडयेत् ॥ उद्धतौष्ठः समुत्पन्नोविषमः कठिनोऽतिरुक् ॥६९ ॥ परन्तु उठना और शयनआदि सब प्रकारकी चेष्टाओंमें व्रणको पीडित नहीं करे ऊपरको गोल ओष्ठवाला और चारों तर्फसे ऊँचा और विषम कठिन और अति पीडावाला ॥ ६९ ॥ समोमृदुररुक् शीघ्रं व्रणः शुद्धयति रोहति ॥ स्थिराणामल्पमांसानां रौक्ष्यादनुपरोहताम् ॥ ७॥ व्रण बन्धके प्रतापसे समान कोमल और पीडासे रहित होके शीव शुद्धिको प्राप्तहो पीछे अंकुरको प्राप्त हो जाता है और स्थिर तथा अल्प मांसवाले और रूखेपनेसे अंकुरको नहीं प्राप्त हुये ॥ ७० ॥ प्रच्छाद्यमौषधं पत्रैर्यथादोषं यथर्तु च ॥ अजीर्णतरुणाच्छिद्रैः समन्तात्सुनिवेशितैः॥ ७१॥ व्रणोंपै पत्तोंकरके दोष और ऋतुके अनुसार कल्क लेहआदि औषध आच्छादित करनी योग्य है परन्तु जर्जरपनेसे रहित तरुण और छिद्रसे रहित चारोंतर्फसे अच्छी तरहसे निवोशत ॥ ७१ ।। धौतैरकर्कशैः क्षीरीभूर्जार्जुनकदम्बजैः ॥ कुष्ठिनामग्निदग्धानां पिटिका मधुमेहिनाम् ॥७२॥ जल आदिकरके निर्मल किये कठोरपनेसे रहित खिरनी भोजपत्र अर्जुनवृक्ष कदंबसे उपजे पत्तों करके आच्छादित करे, और कुष्ठवाले और अग्निकरके दग्ध पिटिका तथा मधुमेहवाले ॥ ७२ ॥ कर्णिकाश्चोन्दुरुविषे क्षारदग्धा विषान्विताः ॥ न मांस्पाके च बध्नीयाद्गुदपाके च दारुणे॥७३॥ __मूसाके विषमें कर्णिकारूप चिकदौंसे युक्त खारसे दग्ध और विषसे अन्वित मांसके पाकमें और गुदाके पाकमें जो व्रण हैं तिन्होंको वैद्य न बांधै ॥ ७३ ॥ शीर्यमाणाः सरुग्दाहाः शोफावस्थाविसर्पिणः॥ अरक्षया व्रणे यस्मिन् मक्षिका निक्षिपेत् कृमीन् ॥ ७४ ॥ बिखरे हुएसे शूल और दाहवाले और शोजासे अवस्थित विसर्पसे संयुक्त व्रणभी बांधने के योग्य नहीं और जिस व्रणमें रक्षा नहीं कीजाती उसमें माखी कृमियोंको प्राप्त करदेती है । ७४ ॥ ते भक्षयन्तः कुर्वन्ति रुजाशोफास्रसंस्रवान् ॥ सुरसादि प्रयुञ्जीत तत्र धावनपूरणे ॥ ७५॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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