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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२५५) जाब, कूला, काख, अण्डसन्धि, माथा इन्होंमें गाढ अर्थात् करडा बन्ध देवे और शाखा, मुख कान, छाती, पीठ, पशानी, गल, पेट, इन्होंमें ।। ६२ ॥
समं मेहनमुष्के च नेत्रे सन्धिषु च श्लथम् ॥
वनीयाच्छिथिलस्थाने वातष्लेष्मोद्भवे समम् ॥ १३॥ समान बन्ध देवै और लिंग, अण्डकोश, नेत्र, सन्धि, इन्होंमें शिथिलरूप बन्ध देवै, परन्तु शिथिलस्थानमें जो बात और कफसे उपजे वग होवे तो सामान्य बन्ध देवै ॥ ६३ ॥
गाढमेव समस्थाने भृशं गाढं तदाश्रये ॥
शीते वसन्ते च तथा मोक्षणीयौ यहाध्यहात्॥६४॥ और गाढ स्थानके और जहां गाढबंद योग्यहै तिन स्थलोंमें जो वात और कफसे व्रणउपजै तो अत्यन्त करडा बन्ध देवे, शीतकालमें और वसन्तऋतुमें वात और कफसे उत्पन्न हुये व्रण तीन तीन दिनमें खोलने योग्य हैं ॥ ६४ ॥
पित्तरक्तोत्थयोर्बन्धो गाढस्थाने समो मतः ॥
समस्थाने श्लथो नैव शिथिलस्याशये तथा ॥६५॥ रक्त और पित्तसे उपजे व्रणोंमें गाढ बन्धकी जगह समान बन्ध देना योग्यहै और समान बन्ध की जगह शिथिल बन्ध देना योग्य है और शिथिल बन्धकी जगह बन्ध देना नहीं चाहिये ॥६५॥
सायं प्रातस्तयोर्मोक्षो ग्रीष्मे शरदि चेष्यते ॥ ..
अबद्धो देशमशकशीतवातादिपीडितः॥६६॥ ब्रीष्म और शरदऋतुमें रक्त और पित्तसे उपजे व्रणोंको प्रभात और सायंकाल खोले और दंश मच्छर शीत वायु आदिकरके पीडित ॥ ६६ ।।
दुष्टीभवेचिरं चात्र न तिष्ठेल्नेहभेषजम् ॥
कृच्छ्रेण शुद्धिं रूढिं वा याति रूढो विवर्णताम् ॥६७ ॥ व्रण चिरकालतक दुष्ट रहता है इस व्रणमें बन्धके विना उपयोजित किया स्नेह और औषध नहीं ठहरता है और बन्धके विना शुद्धि और अङ्करको कष्टकरके प्राप्त होता है और अंकारत हुआभी विवर्णताको प्राप्त होजाता है ।। ६७ ॥
बद्धस्तु चूर्णितो भग्नो विश्लिष्टः पाटितोऽपि वा।
छिन्नलायुशिरोऽप्याशु सुखं संरोहति व्रणः॥६८॥ वर्णित अर्थात् हड्डीमें आश्रित व्रण भग्न अर्थात् टूटी हुई हड्डीमें आश्रित व्रण और विश्लिष्ट अर्थात् सन्धिस्थानसे अन्यथा प्राप्त हुआ व्रण और पाटितव्रण और छिन्न नस और नाडीवाला व्रण ये सब बन्धके प्रतापसे सुख पूर्वक अंकुरित होजाते हैं ॥ ६८ ॥
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