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(२५४)
अष्टाङ्गहृदयेऔर रक्तकरके रहित ओष्ठवाले व्रणको शस्त्रकरके कुछेक लेखित कर पीछे जब रुधिर उत्पन्न होचुके तब इस व्रणको सीमैं इस व्रणका संधान रक्तही कहा है ॥ ५६॥ ___ बन्धनानि तु देशादीन् वीक्ष्य युञ्जीत तेषु च ॥
आविकाजिनकौशेयमुष्णं क्षौमं तु शीतलम् ॥ ५७॥ तिस व्रणोंमें देश आदिको देखकर बंधनोंको प्रयुक्त करै, भेडकी चर्म, मृगकी चर्म कौशेय वस्त्र ये उष्ण वार्यवाले हैं और क्षौमवस्त्र शीतल वीर्यवाला है ॥ ५७ ॥
शीतोष्णं तूलसन्तानकार्पासनायुवल्कजम् ॥
ताम्रायस्त्रपुसीसानि व्रणे मेदः कफाधिके ॥ ५८॥ और शाल्मलकपास, वल्कल ये सब शीतउष्णवीर्यवाले हैं और मेद तथा कफकी अधिकतावाले नणमें तांबा लोहा रांग शीशा प्रयुक्त करै ॥ ५८ ॥
भङ्गे च युद्ध्यात्फलकं चर्मवल्ककुशादि च॥ . स्वनामानुगताकारा बन्धास्तु दश पञ्च च॥ ५९ ॥
और भंगमेंभी इन्होंको प्रयुक्त करै और फलकआदि चर्म, वल्कल और बांसकी फाटकको प्रयुक्त करै और अपने नामके अनुगत आकारवाले बंध पंद्रह हैं ( कोश और अंगुलीपर्वमें चर्मादिका बंधन बांधै । स्वस्तिक बंधन संधिकूर्च भूस्तनान्तर कोख नेत्र कानमें बांधै । मुत्तोली ग्रीवा और मेढ़में । चीन अपांगमें दाम संधिवंक्षणादिमें । अनुवेलित शाखाओंमें । खट्टा ढोढी संधि और गंडमें । विबंध उदर ऊरुपृष्टमें । स्थगिका अंगुष्ठ अंगुली मेढ़ आंतमूत्रवृद्धि । वितान शिर आदिमें । उत्संग लम्बे अंग बाहु आदिमें । गोफण नासा ओष्ट चिबुक सक्थि आदिमें । यमक यमलवणमें मंडल वृत अंगमें । पंचांगी जत्रूके ऊर्ध प्रयुक्त करनी ) ॥ ५९ ॥
कोशस्वतिकमुत्तोलीचीनदामानुवेल्लितम् ॥
खट्वाविबन्धस्थविकावितानोत्सङ्गगोफणाः ॥ ६०॥ कोश १ स्वस्तिक १ मुत्तोली ३ चीन ४ दाम ५ अनुवेल्लित ६ खट्टा ७ विबंध ( स्थगिका ९ वितान १० उत्संग ११ गोफण १२ ॥ १० ॥
यमकं मण्डलाख्यं च पंचाङ्गी चेति योजयेत् ॥
यो यत्र सुनिविष्टः स्यात्तं तेषां तत्र बुद्धिमान्॥६१॥ यमक १३ मंडलाख्य १४ पंचांगी १५ ऐसे इन पंद्रह यंत्रों से जो जहां युक्त करनेके योग्य हो तिसको तहांही बुद्धिमान् वैद्य योजित करै ॥ ६१ ॥
वनीयादगाढमूरुस्फिकक्षावणमूर्द्धसु ॥ शाखावदनकर्णोर पृष्टपार्श्वगलोदरे॥६२॥
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