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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२४७) वलीभिराचितः श्यावः शीर्यमाणतनूरुहः॥
कफजेषु तु शोफेषु गम्भीरं पाकमेत्यसृक् ॥ ८॥ वलियोंकरके व्याप्त और धूम्रवर्णवाली और पतित होतेहुये रोमोंवाली सूजन होजाती है और कफसे उपजे शोजेमें रक्त गंभीर पाकको प्राप्त होता है ॥ ८॥
पक्कलिङ्गं ततोऽस्पष्टं यत्र स्याच्छीतशोफता॥
त्वक्सावये रुजोऽल्पत्वं घनस्पर्शत्वमश्मवत् ॥९॥ इसी वास्ते शोजाके पाकके लक्षण स्पष्ट हैं, जहां शीतलरूप शोजा हो और त्वचाके समान वर्ण और शूलकी अल्पता हो और पत्थरकी तरह करडा स्पर्श होवे ॥ ९ ॥
रक्तपाकमिति ब्रूयात्तं प्राज्ञो मुक्तसंशयः॥
अल्पसत्त्वेऽबले बाले पाके चात्यर्थमुद्धते ॥१०॥ तिसको संशयसे रहित वैद्य रक्तपाक कहै, अर्थात् शोजा नहीं और अल्प सत्ववाला, बलसे रहित बालक, इन्होंके पाकसे अत्यंत उद्धत शोजा होवे तो ॥ १० ॥
दारणं मर्मसन्ध्यादिस्थिते चान्यत्र पाटनम् ॥
आमच्छेदे शिरास्नायुव्यापदोऽसृगतिस्तुतिः ॥११॥ और मर्मकी सन्धिआदिमें स्थितहुये अत्यन्त उद्धत शोजेमेंभी दारणकर्म करै, अर्थात् चीरदे और इन्होंसे अन्यस्थानमें उपजे शोजेमें पाटनकर्म करै और कच्चे शोजाके छेदनमें शिरा, नस. इन्होंमें दुःख होता है और रक्तका अत्यन्त निकसना होता है ॥ ११ ॥
रुजोऽतिवृद्धिदरणं विसर्पो वा क्षतोद्भवः॥
तिष्ठन्नन्तः पुनः पूयः शिरास्नायूसृगामिषम् ॥ १२ ॥ और पीडाकी अतिवृद्धि होती है और दरण होता है, अथवा क्षतसे उपजा विसर्परोग होजाता है और फिर भीतरको स्थित हुई और वृद्धिको प्राप्तहुई राद शिरा, नस, रक्त, मांसको ॥ १२ ॥
विवृद्धो दहति क्षिप्रं तृणोलपमिवानलः॥
यश्छिनत्त्याममज्ञानाद्यश्च पक्कमुपेक्षते ॥१३॥ दग्ध करती है, जैसे अग्नि तृणके स्थानको, जो वैद्य मोहसे कच्चेको काटै और जो वैद्य पक्क हुयेको त्यागै॥ १३॥
श्वपचाविव विज्ञेयौ तावनिश्चितकारिणौ ॥
प्राक्शस्त्रकर्मणश्चेष्टं भोजयदन्नमातुरम् ॥ १४ ॥ ऐसे निश्चित कमजान्नेवाले दोनों वैद्य चांडालके समान जानने योग्य है और शस्त्रकर्मसे पहले रोगीको व्रणमें अपथ्यरूप अन्नकोभी भोजन करवावे जिससे उसमें बलहोजाय ॥ १४ ॥
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