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(२४०)
अष्टाङ्गहृदयेक्षोभाद्रागादिभिः शल्यं लक्षयेत्तद्वदेव च ॥ .. पेश्यस्थिसन्धिकोष्ठेषु नष्टमस्थिषु लक्षयेत् ॥ १३ ॥
और मांसमें नहीं दीखते हुए शल्यको क्षोभसे और अनेक प्रकारके राग आदिकरके लक्षित करे, और मांसकी पेशी और हड्डियोंकी सन्धि और कोष्ठ आदिमें नष्ट हुये शल्यकोभी क्षोभसे तथा राग आदि करके लक्षित करै, और हड्डियोंमें नष्टहुये शल्यकोभी लक्षित करै ॥ १३ ॥
अस्थ्नामभ्यञ्जनस्वेदबंधपीडनमर्दनैः
प्रसारणाकुञ्चनतः संधिनष्टं तथास्थिवत् ॥ १४ ॥ हड्डियोंका अभ्यङ्ग और स्वेद और बन्ध और पीडन और मर्दन इन्होंकरके और प्रसारण तथा आकुञ्चनसे जान्ना और सन्धियोंमें नष्ट हुये शल्यकोभी इसी प्रकार लक्षित करै ॥ १४ ॥
नष्टे स्नायुशिरास्रोतोधमनिष्वसमे पथि ॥
अश्वयुक्तं रथं खण्डचक्रमारोप्य रोगिणम् ॥ १५ ॥ नस सिराखोत धमनी इन्होंमें नष्ट शल्य होजावे तौ सडकआदिसे रहित ऊंचे नीचे मार्ग में खण्ड रूप पहियावाला और घोडोंसे संयुक्त रथमें रोगीको आरोपित कर ॥ १५ ॥
शीघ्रं नयेत्ततस्तस्य संरम्भाच्छल्यमादिशेत् ॥
मर्मनष्टं पृथङ् नोक्तं तेषां मांसादिसंश्रयात् ॥ १६ ॥ शीघ्र घोडोंको हाँके पीछे तिस रथके संक्षोभसे शल्यको देखे और मों में नष्ट हुये पृथक् नहीं कहे हैं क्योंकि तिन मोंको मांसआदिके संश्रय होनेसे ॥ १६ ॥
सामान्येन सशल्यं तु क्षोभिण्या क्रियया सरुक्॥
वृत्तं पृथु चतुष्कोणं त्रिपुटं स समासतः॥१७॥ सामान्यकरके संक्षोभको उत्पादन करनेवाले कर्मकरके जो पीडावाला स्थान होवे वह शल्यसे संयुक्त जानना गोल और पाश्चोंकरके पारच्छेदित और चार कोणोंवाला और तीन पुटोवाला ॥१७॥
अदृश्यशल्यसंस्थानं व्रणाकृत्या विभावयेत् ॥
तेषामाहरणोपायौ प्रतिलोमानुलोमकौ ॥१८॥ ऐसे विस्तारसे अदृश्य शल्यके संस्थानको व्रणकी आकृतिकरके जाने तिन अदृश्यरूप शल्यों के निकासनेको प्रतिलोम और अनुलोम दो उपाय हैं ॥ १८ ॥
अर्वाचीनपराचीने निर्हरेत्तद्विपर्ययात् ॥ सुखाहार्यं यतश्छित्त्वा ततस्तिर्यग्गतं हरेत् ॥ १९॥
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