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( २३८ )
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अष्टाङ्गहृदयेअष्टाविंशोऽध्यायः ।
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अथातः शल्याहरणविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर शल्याहरणविधिनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । वक्रर्जुतिर्यगूर्ध्वाधः शल्यानां पञ्चधा गतिः ॥ ध्यामं शोफं रुजावन्तं स्रवन्तं शोणितं मुहुः ॥ १ ॥
टेढी कोमल तिरछी ऊंची नीची शल्योंकी पांच प्रकारकी गति है और श्यामवर्णवाला शोजासे - संयुक्त और पीडावाला और बारंबार रक्तको झिराताहुआ ॥ १ ॥
अभ्युद्गतं बुहुदवत्पिटिकोपचितं व्रणम् ॥
मृदुमांसं विजानीयादन्तःशल्यं समासतः ॥ २ ॥ विशेषात्त्वग्गते शल्ये विवर्णः कठिनायतः ॥
शोफो भवति मांसस्थे चोषः शोफो विवर्द्धते ॥ ३ ॥
और सन्मुखपने करके ऊंचा और बुल्बुलोंकी तरह और फुन्सियोंकरके व्याप्त और कोमलमांसवाले व्रणको संक्षेपसे शल्यकर के संयुक्त जानना, विशेषता से त्वचा में शल्य होवे तो वर्णसे रहित और कठिन और लंबा शोजा होता है, और मांसमें स्थित शल्य होवे तो तीव्र दाह और शोजा बढ़ाता है ॥ २ ॥ ३॥
पीsनाक्षमता पाकः शल्यमार्गो न रोहति ॥ पेश्यन्तरगते मांसप्राप्तवत् श्वयथुं विना ॥ ४ ॥
और पीडा नहीं सहीजाती और पाक होता है और शल्यके मार्गपै अंकुर नहीं आता और पेशीके मध्य में शल्य होवे तो मांसमें प्राप्त हुये शल्यकी तरह सब लक्षण होते हैं एक शोजाके विना४ आक्षेपः स्नायुजालस्य संरम्भस्तम्भवेदनाः ॥ स्नायुगे दुर्हरं चैतच्छिराध्मानं शिराश्रिते ॥ ५ ॥
और स्नायुगत शल्यमें नर्सोंके जालका आक्षेप और क्षोभ और स्तंभ और शूल ये उपजते हैं, यह शल्य दुःख करके निकसता है, और शिराके आश्रित शल्य होवे तो शिराओं में अफारा उपजता है ॥ ५ ॥
स्वकर्मगुणहानिः स्यात्स्रोतसां स्रोतसि स्थिते ॥ धनिस्थेऽनिलो रक्तं फेनयुक्तमुदीरयेत् ॥ ६ ॥
और नाडीके स्त्रोतोंमें शल्यकी स्थिति होवे तो अपना कर्म और अपने गुणकी हानि होती है, और धमनी नाडियों में शल्यकी स्थिति होवे तो झागोंसहित रक्तको वायु प्रेरता है ॥ ६ ॥
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