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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । षड्विंशतितमोऽध्यायः।
अथातः शस्त्रविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इसके अनंतर शस्त्रविधिनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । षड्विंशतिः सुकारर्घटितानि यथाविधि ॥
शस्त्राणि रोमवाहीनि बाहुल्येनांगुलानि षट्र ॥१॥ बहुलताकरके छ: अंगुलकी लंबाईसे संयुक्त और छब्बीश प्रकारवाले और कर्ममें कुशल वैद्योंकरके घटित और रोमोंको काटनेमें समर्थ ॥ १ ॥
सुरूपाणि सुधाराणि सुग्रहाणि च कारयेत् ॥
अकरालानि सुध्मातसुतीक्ष्णावर्तितेऽयसि ॥२॥ और सुंदररूपवाले और सुंदरधारसे संयुक्त और सुखकरके ग्रहण करनेके योग्य ऐसे शस्त्र करवाने परंतु अच्छीतरह आध्मात और तीक्ष्ण और आवर्तित लोहेसे बढेहुये और देखनमें सुंदर॥२॥
समाहितमुखाग्राणि नीलाम्भोजच्छवीनि च ॥
नामानुगतरूपाणि सदा सन्निहितानि च ॥३॥ और समाहितरूप मुखके अग्रभागसे संयुक्त और नीले कमलके समान कांतिवाले और नामके अनुगत रूपोंवाले और सबकाल समीपमें स्थित ॥ ३॥
स्वोन्मानार्धचतुर्थांशफलान्येकैकशोऽपि च ॥
प्रायो द्वित्राणि युञ्जीत तानि स्थानविशेषतः ॥४॥ और अपने उन्मानसे आधा भाग और तिससे चौथा भाग फलवाले एक एक और स्थानविशे-- षकरके दो अथवा तीन शस्त्र प्रयुक्त करने ॥ ४ ॥
मण्डलायं फले तेषां तर्जन्यंत खाकृति ॥
लेखने छेदने योज्यं पोथकीशुण्डिकादिषु॥५॥ तिन शस्त्रोंके मध्यमें फलके समीप तर्जनीअंगुलीके भीतरलै नखके समान आकृतिसे संयुक्त ऐसा मंडलाग्रह शस्त्र बनाना, यह शस्त्र लेखनमें छेदनमें पोथकी और शुंडिका आदिरोगोंमें युक्त करना उचित है ॥ ५॥
वृद्धिपत्रं क्षुराकारं छेदभेदनपाटने ॥ ऋज्वग्रमुन्नते शोके गम्भीरे च तदन्यथा ॥६॥
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