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(२१२).
अष्टाङ्गहृदयेप्रकाशकी सहनशक्ति और स्वस्थपना और नेत्रोंका विशदपना और हलकापन लक्षण नेत्रकी तृप्तिमें होते हैं और इन लक्षणोंसे विपरीत लक्षण होवे तब नेत्रकी तृप्तिका अभाव जानो और कफकी पीडा उपजै तब,नेत्रोंकी अति तृप्ति जाननी ॥ ११ ॥ स्नेहपीता तनुरिव क्लान्ता दृष्टिर्हि सीदति ॥
तर्पणानन्तरं तस्मादृग्बलाधानकारिणम् ॥ १२॥ स्नेहको पीनेवाली दृष्टि क्लांतरूप शरीरिकी तरह शिथिल होजाती है इस कारणसे तर्पणकर्मके. पश्चात् दृष्टिमें बलकी प्राप्तिको करनेवाला ।। १२ ॥
पुटपाकं प्रयुञ्जीत पूर्वोक्तेष्वेव यक्ष्मसु ॥
स वाते स्नेहनः श्लेष्मसहिते लेखनो हितः ॥ १३॥ पुटपाकको पहले कहेहुये तर्पणके योग्य रोगोंमें प्रयुक्त करै वातजरोगमें स्नेहन पुटपाक हित है. और कफसहित वातमें लेखनपुटपाक हित है ॥ १३ ॥
दृग्दौर्बल्येऽनिले पित्ते रक्ते स्वस्थ प्रसादनः॥
भूशयप्रसहानूपमेदोमज्जावसामिषैः ॥ १४॥ दृष्टिकी दुर्बलतामें और वातमें और पित्तमें और स्वस्थपनेमें प्रसादनपुटपाक हित है और बिले शय अर्थात मेंडक गोधाआदि और प्रसह अर्थात् गाय गधाआदि और अनूप अर्थात् जलमें रहनेवाले जीव तिन सबोंकी मज्जा, वसा,, मांस, इन्होंकरके ॥ १४ ॥
स्नेहेन पयसा पिष्टैर्जीवनीयैश्च कल्पयेत् ॥
मृगपक्षिपकृन्मांसमुक्तायस्ताम्रसैन्धवैः ॥ १५॥ स्नेह तथा दूध करके.पिष्ट किये जीवनीयगणके औषधोंकरके स्नेहनपुटपाकको कल्पित करै और हारण तथा प्रतुदसंज्ञक पक्षियोंके यकृत् और मांस और मोती, लोहा तांबा, सेंधानमक, ॥ १५ ॥
स्रोतोजशङ्खफेनालैर्लेखनं मस्तुकल्पितैः॥ मृगपक्षियकृन्मजावसान्त्रहृदयामिषैः॥१६॥ मधुरैः सघृतैस्तन्यक्षीरपिष्टैः प्रसादनम् ॥
बिल्वमात्रं पृथक् पिण्डं मांसभेषजकल्कयोः ॥ १७ ॥ काला सुरमा शंख, समुद्र झाग इन्होंको दहीके पानीकरके काल्पत करे तो लेखन पुटपाक बनजाता है और मृग और पक्षियोंके यकृत्, मांस, मज्जा, वसा, आंत हृदय इनोंकरके तथा मधुरवर्गमें कहेहुये और घृतसे अन्वित और नारीकी चूचियोंके दूधमें पीसेहुये पदार्थोकरके प्रसाद नपुटपाक बनता है और मांसका तथा औषधोंके कल्कका पृथक् पृथक् बेलगिरीके समान गोला बनावै ॥ १६ ॥ १७ ॥
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