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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२१३) उरुबूकवटाम्भोजपत्रैः स्नेहादिषु क्रमात् ॥' वेष्टयित्वा मृदा लिप्तं धवधन्वनगोमयैः ॥१८॥ और स्नेहन, लेखन, प्रसादन इन तीनोंमें क्रमसे तिस गोलेको अरंड, वट, कमलके पत्तोंकरके चेष्टित करै, पीछे मट्टीसे लपेट क्रमसे धववृक्ष, धामणवृक्ष, गोबर (गोसे) इन्होंकरके प्रसादनमें कमल पत्रोंसे वेष्टितकरे ॥ १८ ॥ पचेत्प्रदीतैरग्याभं पक्कं निष्पीड्य तद्रसम् ॥ नेत्रे तर्पणवाज्याच्छतं द्वे त्रीणि धारयेत् ॥ १९॥ पकावै जब अग्निके समान पकनेमें होजावे तब तिसमेंसे रसको निचोड पीछे नेत्रमें तर्पणकी तरह रसको प्रयुक्त करै अर्थात् स्नेहन पुटपाकमें १०० मात्रा और लेखन पुटपाकमें २०० मात्रा और प्रसादनपुटपाकमें ३०० मात्रा कालोतक धारै ॥ १९॥ लेखनस्नेहनान्त्येषु पूर्वो कोष्णौ हिमोऽपरः॥ धूमपोऽन्ते तयोरेव योगास्तत्र च तृप्तिवत् ॥२०॥ परंतु स्नेहन और लेखनपुटपाकके रसको कछुक गरमरूपही प्रयुक्त करे और प्रसादनपुटपाकके रसको शीतल करके प्रयुक्त करै और स्नेहन तथा लेखनपुटपाकके अंतमें धूमेको पान करै और इस पुटपाकमेंभी योग और अयोग और अत्यंतयोग ये तीनों पूर्वोक्त तर्पणकी तरह जानने ॥२०॥ तर्पणं पुटपाकञ्च नस्यानहें न योजयेत् ॥ यावन्त्यहानि युञ्जीत द्विस्ततो हितभाग्भवेत् ॥ मालतीमल्लिकापुष्पैर्बद्धाक्षो निवसेनिशि ॥२१॥ नस्यके अयोग्य मनुष्यके अर्थ तर्पण और पुटपाकको प्रयुक्त नहीं कर और जितने दिनोंतक तर्पण और पुटपाकको प्रयुक्त करै तिन्होंसे दुगुने दिनोंतक हितपदार्थको सेवता रहै, तर्पण और पुटपाकको सेवन किये मनुष्य मालती और मल्लिकाके फूलोंकरके आच्छादितनेत्रकर मनुष्य रात्रिको वास करै ॥ २१ ॥ सर्वात्मना नेत्रबलाय यत्नं कुर्वीत नस्याञ्जनतर्पणाद्यैः ॥ दृष्टिश्च नष्टा विविधं जगच्च तमोमयं जायत एकरूपम् ॥ २२ ॥ सब प्रकार करके नेत्रकेबलके अर्थ नस्य, अंजन, तर्पण आदिके द्वारा यतनको करे, क्योंकि जब दृष्टिका नाश होजाता है तब अंधेरासे संयुक्त और अनेकरूपवाला जगत् एक प्रकारवाला होजाता है ।। २२॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां सूत्रस्थाने चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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