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मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२११.) अर्थात् साधारणकालमें दोष और दूष्यआदिको अपेक्षाकरके प्रभात, तथा सायंकालमें सीधी तरह शयन करनेवाले मनुष्यके जवोंकरके मिश्रित उडदोंकी बनीहुई और नेत्रकोशके वाहिर दोनों तर्फ समान ॥ ४ ॥
द्वयगुलोचा दृढां कृत्वा यथास्वं सिद्धमावपेत् ॥
सर्पिनिमीलिते नेत्रे तप्ताम्बुप्रविलापितम् ॥५॥ और दो अंगुलप्रमाण ऊंची और दृढ पाली बनाके पीछे यथायोग्य सिद्ध और गरमपानीकरके द्रवीकृत घृतको निमीलित किये नेत्रमें प्राप्त करै ॥ ५ ॥
नक्तान्ध्यवाततिमिरकृच्छ्रबोधादिके वसाम्॥
आपक्ष्मायादथोन्मेषं शनकैस्तस्य कुर्वतः॥६॥ रातोंधा वात, तिमिर कृच्छ्रबोध आदिरोगोंमें यथायोग्य औषधोंमें सिद्धकरी वसाको प्राप्त करै पलकोंके अग्रभागतक पीछे होलै होलै नेत्रको खोलतेहुये मनुष्यके ॥ ६ ॥
मात्रां विगणयेत्तत्र वर्त्म सन्धिसितासिते ॥
दृष्टौ च क्रमशो व्याधौ शतं त्रीणि च पञ्च च ॥ ७॥ · बर्म, संधि, सित, असित, दृष्टि गतरोगोंमें क्रमसे १०० और ३०० और ५०० ॥ ७॥
शतानि सप्त चाष्टौ च दश मन्थे दशानिले ॥
पित्ते षट् स्वस्थवृत्ते च बलासे पञ्च धारयेत् ॥८॥ और ७००, और ८००, मात्राको धारै और मंथर्मे तथा वातरोगमें एक हजार १०००मात्राको गिनै और पित्तमें ६०० मात्राको धारै और स्वस्थपनेमें तथा कफ रोगमें ५०० मात्राकोधारै ॥८॥
कृत्वापाङ्गे ततो द्वारं स्नेहं पात्रे तु गालयेत्॥
पिबेच्च धूमं नेक्षेत व्योमरूपं च भावरम् ॥९॥ पीछे अपांग देशमें पालीके द्वारकरके स्नेहको पात्रमें डाले और स्नेहकरके प्रेरित कफकी शांतिके अर्थ धूमेको पावै और आकाश तथा सूर्यके घामआदि प्रकाशित रूपको न देखे ॥ ९ ॥
इत्थं प्रतिदिनं वायौ पित्ते खेकान्तरं कफे ॥
स्वस्थे च द्वयन्तरं दद्यादातृप्तेरिति योजयेत् ॥१०॥ वातरोगमें ऐसे तर्पणको नित्यप्रति करता रहै और पित्तजरोगमें एकदिनके अंतरसे तर्पणको देवै, कफमें और स्वस्थपनेमें दो दिनोंके अंतर करके तर्पणको प्रयुक्त करै, ऐसे जबतक नेत्रकी तृप्ति होवे तबतक तर्पणको प्रयुक्त करता रहै ॥ १० ॥
प्रकाशक्षमता स्वास्थ्यं विशदं लघु लोचनम् ॥ तृप्ते विपर्ययोऽतृप्तेऽतितृप्ते श्लेष्मजा रुजः॥ ११॥
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