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(२१०) . अष्टाङ्गहृदये
पीछे वस्त्रकरके सहित दाहिने हाथके अंगूठेकरके वामें नेत्रको ऊपरले वर्ममें ग्रहण कर शोधित करें और बस्त्र सहित वामें हाथके अंगुठेकरके दाहिने नेत्रको शोधित करै ।। २८ ।।
वर्त्मप्राप्ताञ्जनादोषो रोगान्कुर्यादतोऽन्यथा ॥ कण्डूजाड्येऽञ्जनं तीक्ष्णं धूम वा योजयेत्पुनः॥
तीक्ष्णाञ्जनाभितप्ते तु पूर्ण प्रत्यञ्जनं हितम् ॥ २९॥ जो नेत्रके वर्मको नहीं शोधे तो तहां प्राप्त हुये अंजनसे कुपित हुआ दोष रोगोंको उपजाता है और जो नेत्रमें खाज तथा जडपना होवे तो तीक्ष्णाञ्जनको अथवा तक्ष्णि धूमको प्रयुक्त करे तीक्ष्णांजन करके अभितप्त नेत्र होवे तो पूर्णरूप प्रत्यंजनको प्रयुक्त करना हित है ।। २९ ।। इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
सूत्रस्थाने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
चतुर्विंशतितमोऽध्यायः। अथातस्तर्पणपुटपाकविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः॥ इसके अनंतर तर्पणपुटपाकविधिनामक अध्यायको व्याख्यान करेंगे ।
नयने ताम्यति स्तब्धे शुष्क रूक्षेऽभिघातिते॥
वातपित्तातुरे जिह्मे शीर्णपक्ष्माविलेक्षणे ॥१॥ म्लानरूप और गर्वित और शुष्क और रूक्ष और अभिघातसे संयुक्त और वातपित्तकरके पीडित और टेढा और पलकोंकरके वार्जत और स्पष्टतारहित दृष्टि से रहित ॥ १ ॥
कृच्छ्रोन्मीलशिराहर्षशिरोत्पाततमोऽर्जुनैः ॥
स्यन्दमन्थान्यतोवातवातपर्यायशुक्रकैः ॥२॥ और कृच्छ्रोन्मील, शिराहर्ष, शिरोत्पात, अँधेरी, अर्जुनरोगसे पीडित और स्वंद, मंथ, अन्यतोवात, वातपर्याय फूलेसे ॥ २ ॥
आतुरे शान्तरागाश्रुशूलसंरम्भदूषिके ॥
निवाते तर्पणं योज्यं शुद्धयोर्मूर्द्धकाययोः ॥३॥ पीडित और राग, आंशू, शूल, संरंभ, नेत्रमल अर्थात् डीढकी शांतिसे संयुक्त नेत्र होवे तब चातसे रहित स्थानमें और शिर तथा शरीरकी शुद्धिमें तर्पणसंज्ञक औषधको प्रयुक्त करना रचित है ॥ ३॥
काले साधारण प्रातः सायं चोत्तानशायिनः॥ सौम्य: यवमाषमयीं पाली नेत्रकोशाइहिः समाम् ॥४॥
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