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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२०९) नाञ्जयेद्भीतवमितविरिक्ताशितवेगिते ॥ क्रुद्धज्वरिततान्ताक्षिशिरोरुक्शोकजागरे ॥२२॥ भय करनेवाला, वमन कियेहुये, जुलाबको लियेहुये और भोजनको कियेहुये और-मूत्रआदि वेगोंको रोंकेहुये और क्रोधको किये और ज्वरवाला और अत्यंत कृश नेत्ररोग, शिरोरोग, शोक, जागनेवाले मनुष्यों के अर्थ ॥ २२ ॥ अदृष्टेऽर्के शिरःस्नाते पीतयो—ममद्ययोः॥ अजीर्णेऽग्यर्कसन्तप्ते दिवा सुप्ते पिपासिते ॥२३॥ और बदलकरके आच्छादित सूर्य कालमें और शिरकरके स्नान किये और धूमाको तथा मदिराको पियेहुये और अजीर्णवाला और अग्नि तथा सूर्यकरके संतप्त और दिनमें शयन करनेवाले तृषावाले मनुष्योंके अर्थ कुशल वैद्य नेत्रोंमें अंजनको प्रयुक्त न करै ॥ २३ ॥ अतितीक्ष्णमृदुस्तोकबह्वच्छघनकर्कशम् ॥ अत्यर्थशीतलं तप्तमञ्जनं नावचारयेत् ॥ २४॥ अति तीक्ष्ण और अति कोमल और अत्यंत अल्प और अत्यंत बहुत और अत्यंत मोटे कठोर अत्यंत शीतल और तप्त अंजनको नेत्रोंमें न आजै ॥ २४ ॥ अथानुन्मीलयंन्दृष्टिमन्तःसञ्चारयेच्छनैः ॥ अञ्जिते वर्मनी किञ्चिच्चालयेच्चैवमञ्जनम् ॥ २५॥ नेत्रको अंजनकरके अंजित करके पश्चात् दृष्टिके गोलकको खोलकर भीतरको हौले हौले अंजन को संचारित करै अर्थात् नेत्रके मार्गोंमें कछुक चालित करै ॥ २५ ॥ तीक्ष्णं व्याप्नोति सहसा न चोन्मेषनिमेषणम् ॥ निष्पीडनं च वर्मभ्यां क्षालनं वा समाचरेत् ॥२६॥ तक्ष्णि अंजन वेगसे नेत्रके मार्गोंमें व्याप्त होजाता है इसमें नेत्रको खोलना व मीचना नहीं । और दोनों मार्गोकरके निष्पीडनकोभी आचरित न करे और नेत्रका प्रक्षालनभी न करे ॥ २६ ॥ अपेतौषधसंरम्भ निर्वृतं नयनं यदा ॥ व्याधिदोषर्तुयोग्याभिरद्भिः प्रक्षालयेत्तदा ॥२७॥ जब औषधके क्षोभसे रहित दुःखसे रहित नेत्र होजावें तब व्याधि, दोष ऋतुके योग्य पानी करके नेत्रको प्रक्षालित करै ॥ २७ ॥ दक्षिणामुष्ठकेनाक्षि ततो वामं सवाससा॥ ऊर्ध्ववर्त्मनि संगृह्य शोध्यं वामेन चेतरत् ॥२८॥ १४ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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