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(२०८)
अष्टाङ्गहृदये
तीक्ष्णचूर्णकी २ शलाई और कोमलचूर्णकी तीन शलाई नेत्रमें फेरे और रात्रि, शयनकाल, मध्याह्न इन कालोंमें और पान, अन्न, गरम किरण इन्होंकर के म्लानरूप नेत्रमें अंजनको प्रयुक्त: नहीं करै ॥ १५ ॥
अक्षिरोगाय दोषाः स्युर्वर्द्धितोत्पीडितद्रुताः ॥
प्रातः सायं च तच्छान्त्यै व्यऽर्केऽतोऽञ्जयेत्सदा ॥ १६ ॥ क्योंकि अंजनको प्रयुक्त करनेसे वृद्धिको प्राप्त हुये और अन्य स्थानमें जानेसे उत्पीडित और कालकी गरमाईसे विलयको प्राप्त हुये दोष नेत्ररोगके अर्थ होते हैं, इसत्रास्ते प्रभात और सायंकाल में नेत्र-रोगकी शांतिके अर्थ बद्दलोंसे रहित सूर्य में सदा अंजनको प्रयुक्त करें ।। १६ ।।
वदन्त्यन्ये तु न दिवा प्रयोज्यं तीक्ष्णमञ्जनम् ॥
विरेकदुर्बलं चक्षुरादित्यं प्राप्य सीदति ॥ १७ ॥
अन्य वैद्य कहते हैं कि दिनमें तीक्ष्णरूप अंजनको प्रयुक्त न करै क्योंकि विरेक करके दुर्बल सूर्यको प्राप्त होकर शिथिलताको प्राप्त होजाता है ॥ १७ ॥
स्व
रात्रौ कालस्य सौम्यत्वेन च तर्पिता ॥
शीतसात्म्याहगाग्नेयी स्थिरतां लभते पुनः ॥ १८ ॥
रात्रिमें शयन करनेसे और सौम्यपनेकरके तर्पित हुई और शीतप्रकृतिवाली और अग्नितत्वसे उपजी वह दृष्टि फिर स्थिरताको प्राप्त होती है, इसवास्ते रात्रिमेंही अंजन प्रयुक्त करना योग्य है ॥ १८ ॥ अत्युद्रिक्ते वलासे तु लेखनीयेऽथ वा गदे ॥
काममयपि नात्युष्णे तीक्ष्णमणि प्रयोजयेत् ॥ १९ ॥
अत्यंत बढेहुये कफर्मों अथवा लेखनके योग्य शुक्रर्म आदि रोग में अत्यंत गरम दिनमेंभी तीक्ष्ण अंजनको प्रयुक्त करे नहीं ॥ १९ ॥
अश्मनो जन्म लोहस्य तत एव च तीक्ष्णता ॥
उपघातोऽपि तेनैव तथा नेत्रस्य तेजसः ॥ २० ॥
पत्थर से लोहाकी उत्पत्ति हैं और तिसी पत्थर से लोहाकी तीक्ष्णता है और तिसीकर के लोहाका उपघात होता है, तैसे तेजसेही दृष्टिकी उत्पत्ति है और तेजसेही प्रकाशता है और तेजसेही दृष्टिक नाश है ॥ २० ॥
न रात्रावपि शीतेऽति नेत्रे तीक्ष्णाञ्जनं हितम् ॥
दोषमस्रावयत्स्तम्भकण्डूजाड्यादिकारि तत् ॥ २१ ॥
रात्रिमेंभी कफकी अधिकता से अतिशीतलरूप नेत्रमें तीक्ष्णरूप अंजन हित नहीं है, क्योंकि सौम्य कालके वशसे दोषों को नहीं झिराताहुआ स्तंभ, खाज जडपना आदिको करता है ॥ २१ ॥
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